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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स वा॑वशा॒न इ॒ह पा॑हि॒ सोमं॑ म॒रुद्भि॑रिन्द्र॒ सखि॑भिः सु॒तं नः॑। जा॒तं यत्त्वा॒ परि॑ दे॒वा अभू॑षन्म॒हे भरा॑य पुरुहूत॒ विश्वे॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वा॒व॒शा॒नः । इ॒ह । पा॒हि॒ । सोम॑म् । म॒रुत्ऽभिः॑ । इ॒न्द्र॒ । सखि॑ऽभिः । सु॒तम् । नः॒ । जा॒तम् । यत् । त्वा॒ । परि॑ । दे॒वाः । अभू॑षन् । म॒हे । भरा॑य । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । विश्वे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वावशान इह पाहि सोमं मरुद्भिरिन्द्र सखिभिः सुतं नः। जातं यत्त्वा परि देवा अभूषन्महे भराय पुरुहूत विश्वे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। वावशानः। इह। पाहि। सोमम्। मरुत्ऽभिः। इन्द्र। सखिऽभिः। सुतम्। नः। जातम्। यत्। त्वा। परि। देवाः। अभूषन्। महे। भराय। पुरुऽहूत। विश्वे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 8
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र इह स वावशानस्त्वं मरुद्भिः सूर्यइव सखिभिः सह नो जातं सुतं सोमं पाहि। हे पुरुहूत विश्वेदेवा यद्येन महे भराय त्वा पर्यभूषंस्तेन त्वमस्मान्त्सर्वतोऽलङ्कुरु ॥८॥

    पदार्थः

    (सः) (वावशानः) कामयमानः (इह) अस्मिन् राज्यव्यवहारे (पाहि) (सोमम्) ऐश्वर्यम् (मरुद्भिः) वायुभिः सूर्य इव (इन्द्र) सकलैश्वर्यसम्पन्न (सखिभिः) सुहृद्भिः (सुतम्) उत्पन्नम् (नः) अस्माकम् (जातम्) प्रकटम् (यत्) येन (त्वा) त्वाम् (परि) सर्वतः (देवाः) विद्वांसः (अभूषन्) अलङ्कुर्युः (महे) महते (भराय) भरणीयाय सङ्ग्रामाय (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (विश्वे) सर्वे ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो वायुसहायेन सर्वं रक्षति तथैवाप्तैर्मित्रैः सह राजा सर्वं राष्ट्रं रक्षेद्येऽमात्यभृत्या राज्यहितकारिणः स्युस्तान् सर्वदा सत्कुर्यात् ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से युक्त ! (इह) इस राज्य के व्यवहार में वह (वावशानः) कामना करते हुए आप (मरुद्भिः) पवनों से सूर्य के सदृश (सखिभिः) मित्रों के साथ (नः) हम लोगों के (जातम्) प्रकट और (सुतम्) उत्पन्न (सोमम्) ऐश्वर्य की (पाहि) रक्षा कीजिये और हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसित (विश्वे) सम्पूर्ण (देवाः) विद्वान् लोग (यत्) जिससे (महे) बड़े (भराय) पोषण करने योग्य संग्राम के लिये (त्वा) आपको (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करें, तिससे आप हम लोगों को सब प्रकार शोभित करें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य वायुरूप सहाय से सबकी रक्षा करता है, वैसे ही यथार्थवक्ता मित्रों के साथ राजा संपूर्ण राज्य की रक्षा करे और जो मन्त्री और नौकर राज्य के हितकारी होवें, उनका सब काल में सत्कार करें ॥८॥

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    विषय

    मरुतों के साथ

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (सः) = वह तू (वावशानः) = सोमरक्षण की प्रबल कामनावाला होता हुआ (सखिभिः मरुद्भिः) = अपने मित्रभूत इन प्राणों के साथ (नः) = हमारे (सुतम्) उत्पन्न किये हुए (सोमं पाहि) = सोम का रक्षण कर । प्रभु ने शरीर में सोम के उत्पादन की व्यवस्था की है। प्राणसाधना द्वारा इस सोम का शरीर में ही रक्षण होता है। [२] इस सोमरक्षण से (जातम्) = आविर्भूत शक्तियोंवाले (त्वा) = तुझे (यत्) = चूँकि (विश्वे देवाः) = सब देव-सब उत्तम गुण, (महे भराय) = महान् संग्राम के लिए (परि अभूषन्) = सर्वतः अलंकृत करते हैं। इसलिए तूझे सोम का रक्षण करना ही है। इसके रक्षण से ही तू रोगकृमि आदि का संहार कर सकेगा। हे पुरुहूत (पुरु हूतं यस्य) अत्यन्त ही प्रभु का उपासन करनेवाले जीव! महादेव के सान्निध्य में सब देव तो तेरे समीप होंगे ही।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्राणसाधना से सोमरक्षण होने पर सब देव हमें अलंकृत करते हैं।

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    विषय

    प्रजास्थ विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यत्) जिस कारण से (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् और विजय की कामना वाले वीरगण (जातं त्वां) सब गुणों से प्रसिद्ध तुझको (महे भराय) बड़े भारी संग्राम के लिये (परि अभूषन्) सुशोभित करते और (त्वा परि अभूषन्) तेरे ही इर्द गिर्द रह कर तेरा साथ देते हैं हे (पुरुहूत) बहुतों से आदरपूर्वक पुकारने योग्य ! (सः) वह तू इस कारण से हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (वावशानः) राज्यैश्वर्य और प्रजा की कामना करता हुआ (सखिभिः) अपने मित्र (मरुद्भिः) वीर बलवान् पुरुषों सहित सूर्य के समान तेजस्वी होकर (नः) हमारे (सुतम्) इस दिये हुए उत्पन्न या अभिषेक द्वारा प्रदत्त (सोमम्) राज्यैश्वर्य को (इह) यहां ही रहकर (पाहि) पालन कर और उपभोग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–४,७-९ त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप। १-३ निचृज्जगती। १०,११ यवमध्या गायत्री। १२ विराडगायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य वायूरूपाच्या साहाय्याने सर्वांचे रक्षण करतो, तसेच यथार्थवक्ता मित्रांबरोबर राजाने संपूर्ण राज्याचे रक्षण करावे व जे मंत्री व नोकर, राज्याचे हितकरी असतात त्यांचा सदैव सत्कार करावा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of love and majesty, invoked and invited by many, come with the storm troops of the winds and vitalities, and, here in the world, taste, protect and promote our soma of life’s joy and excellence distilled by our friends and vibrant youth, since as you arose and manifested to view, all the brilliancies of the world adored and investitured you with power and honour for the sake of grandeur and glory in life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the rulers are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (endowed with all great wealth) you desire our welfare along with your friends. who like the winds to the sun protect the wealth that has been acquired in this State work. O much-invoked king, all learned persons you have adorned (equipped). You adorn (safeguard) us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (भराय ) भरणीयात्र सङ्ग्रामाय । भरे इति संग्रामनाम (N.G. 2,7) = For the battle that requires the support from all. ( मरुद्भिः) वायुभिः | मस्त इति पदनामसु, ( N. G.5,5, ) अनेन गमनागमनक्रियाप्रापका वायवो गृहयन्ते इति महर्षि दयानन्दः ऋ० 1, 15 1, भाष्ये । = With winds.

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