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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 51/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - यवमध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्ते॒ अनु॑ स्व॒धामस॑त्सु॒ते नि य॑च्छ त॒न्व॑म्। स त्वा॑ ममत्तु सो॒म्यम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । अनु॑ । स्व॒धाम् । अस॑त् । सु॒ते । नि । य॒च्छ॒ । त॒न्व॑म् । सः । त्वा॒ । म॒म॒त्तु॒ । सो॒म्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते अनु स्वधामसत्सुते नि यच्छ तन्वम्। स त्वा ममत्तु सोम्यम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। अनु। स्वधाम्। असत्। सुते। नि। यच्छ। तन्वम्। सः। त्वा। ममत्तु। सोम्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 51; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    [१] (यः) = जो सोम (ते स्वधां अनु) = तेरे आत्मधारक अन्न के अनुसार (असत्) = उत्पन्न होता है। आग्नेय भोजनों से उष्णवीर्य उत्पन्न होता है और सोम्य भोजनों से शीतवीर्य । (सुते) = उस सोम के उत्पन्न होने पर (तन्वं नियच्छ) = तू अपने शरीर का नियमन कर। शरीर के नियमन से सोम का शरीर में रक्षण होगा । [२] (सः) = वह रक्षित सोम (सोम्यम्) = सोमरक्षण में कुशल (त्वा) = तुझे (ममत्तु) = आनन्दित करें। सोमरक्षण के अनुपात में ही नीरोगता, निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता प्राप्त होती है और हम वास्तविक आनन्द को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- हम सात्त्विक सोम्य भोजन द्वारा शरीर में सोम का उत्पादन व रक्षण करें। यह रक्षित सोम हमारे आनन्द का वर्धन करे ।

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