ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
अ॒ग्निर्होता॑ नो अध्व॒रे वा॒जी सन्परि॑ णीयते। दे॒वो दे॒वेषु॑ य॒ज्ञियः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । होता॑ । नः॒ । अ॒ध्व॒रे । वा॒जी । सन् । परि॑ । नी॒य॒ते॒ । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । य॒ज्ञियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्होता नो अध्वरे वाजी सन्परि णीयते। देवो देवेषु यज्ञियः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः। होता। नः। अध्वरे। वाजी। सन्। परि। नीयते। देवः। देवेषु। यज्ञियः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - देवो देवेषु यज्ञियः
पदार्थ -
[१] (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु ही (नः अध्वरे) = हमारे इस जीवनरूप यज्ञ में (होता) = होता होते हैं। प्रभु की शक्ति से ही जीवन-यज्ञ की सब क्रियाएँ चलती हैं। (वाजी सन्) = सब गतियों के स्वामी होते हुए (परिणीयते) = समन्तात् कार्यों में प्राप्त कराये जाते हैं, प्रभु की शक्ति से ही सब गति का सम्भव है । [२] (देवः) = वे प्रभु प्रकाशमय हैं । (देवेषु यज्ञियः) = सूर्य आदि देवों में वे प्रभु ही उपास्य हैं। सूर्य में प्रभु की शक्ति ही तो काम कर रही है, सूर्यादि सब देवों में प्रभु की दीप्ति ही तो दीप्त हो रही है 'तस्य भासा सर्व मिदं विभाति'। सब देव वस्तुतः उस प्रभु से ही देवत्व को प्राप्त करते हैं 'तेन देवा देवतामग्र आयन्' ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु ही होता हैं, वे ही वाजी- सब गति के स्रोत हैं, वे ही सब देवों को देवत्व प्राप्त करा रहे हैं। ये सब उस प्रभु की दीप्ति से ही दीप्त हो रहे हैं ।
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