ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
परि॑ त्रिवि॒ष्ट्य॑ध्व॒रं यात्य॒ग्नी र॒थीरि॑व। आ दे॒वेषु॒ प्रयो॒ दध॑त् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । त्रि॒ऽवि॒ष्टि । अ॒ध्व॒रम् । याति॑ । अ॒ग्निः । र॒थीःऽइ॑व । आ । दे॒वेषु । प्रयः॑ । दध॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि त्रिविष्ट्यध्वरं यात्यग्नी रथीरिव। आ देवेषु प्रयो दधत् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठपरि। त्रिऽविष्टि। अध्वरम्। याति। अग्निः। रथीःऽइव। आ। देवेषु। प्रयः। दधत् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
विषय - देवेषु प्रयः दधत्
पदार्थ -
[१] (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (त्रिविष्टि) = तीनों लोकों में व्याप्ति के द्वारा (अध्वरम्) = इस सृष्टि यज्ञ में (परियाति) = सब ओर गति कर रहे हैं। सारी गति के आदि स्रोत प्रभु ही हैं । (रथी: इव) = वे रथी के समान हैं। रथवाला व्यक्ति जिस प्रकार शीघ्रता से गतिवाला होता है, उसी प्रकार वे प्रभु शीघ्रता से गतिवाले हैं। [२] वे प्रभु (देवेषु) = इन सब सूर्यादि देवों में (प्रयः) = [प्रयस्=strength to work] कार्य करने की शक्ति को (दधत्) = स्थापित करते हैं। सूर्यादि सब पिण्ड प्रभु की शक्ति से ही उस उस कार्य को कर रहे हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सृष्टि यज्ञ के संचालक प्रभु ही हैं ।
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