ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
नाहमतो॒ निर॑या दु॒र्गहै॒तत्ति॑र॒श्चता॑ पा॒र्श्वान्निर्ग॑माणि। ब॒हूनि॑ मे॒ अकृ॑ता॒ कर्त्वा॑नि॒ युध्यै॑ त्वेन॒ सं त्वे॑न पृच्छै ॥२॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒हम् । अतः॑ । निः । अ॒य॒ । दुः॒ऽगहा॑ । ए॒तत् । ति॒र॒श्चता॑ । पा॒र्श्वात् । निः । ग॒मा॒नि॒ । ब॒हूनि॑ । मे॒ । अकृ॑ता । कर्त्वा॑नि । युध्यै॑ । त्वे॒न॒ । सम् । त्वे॒न॒ । पृ॒च्छै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाहमतो निरया दुर्गहैतत्तिरश्चता पार्श्वान्निर्गमाणि। बहूनि मे अकृता कर्त्वानि युध्यै त्वेन सं त्वेन पृच्छै ॥२॥
स्वर रहित पद पाठन। अहम्। अतः। निः। अय। दुःऽगहा। एतत्। तिरश्चता। पार्श्वात्। निः। गमानि। बहूनि। मे। अकृता। कर्त्वानि। युध्यै। त्वेन। सम्। त्वेन। पृच्छै ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
विषय - वासना संग्राम-तत्त्वज्ञान
पदार्थ -
[१] (अहम्) = मैं (अतः) = गतमन्त्र में वर्णित पुराण धर्ममार्ग से (न) = नहीं (नि: अया) = [अयानि] बाहर जाता हूँ। उस पुराण धर्ममार्ग से ही चलता हूँ । (एतत्) = यह पुराणधर्म (दुर्गहः) = कष्टों का नाश करनेवाला है [दुर्ग-हा] अथा 'दुर् गहा' = कठिनता से ग्रहण करने योग्य है 'क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति' । (तिरश्चता) = टेड़ी गतिवाले [तिरः अञ्च्] (पाश्र्वात्) पासों से-सीमाओं से (निर्गमाणि) = बाहर होता हूँ। सीमाओं व पासों में न जाकर मध्यमार्ग से चलता हूँ। पक्ष में न गिरते हुए आचरण करना ही तो न्याय है। [२] (मे) = मेरे द्वारा (बहूनि) = बहुत से (कर्त्वानि) = कर्त्तव्य अकृता नहीं किये गये हैं। कितने ही मेरे कर्त्तव्य कर्म बचे हुए हैं। (त्वेन) = एक कर्त्तव्य-कर्म के द्वारा तो मैं (युध्यै) = वासनाओं के साथ संग्राम करता हूँ। (त्वेन) = तथा एक के द्वारा (संपृच्छे) = [प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्] ज्ञानवाणियों को परिप्रश्नों द्वारा जानने का प्रयत्न करता हूँ। मुख्य कर्त्तव्य दो ही हैं- [क] वासनाओं के साथ संग्राम, [ख] ज्ञानवाणियों के तत्त्व का दर्शन ।
भावार्थ - भावार्थ— मैं अति में न जाकर मध्यमार्ग से चलता हूँ। वासनाओं के साथ संग्राम करता हुआ तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता हूँ।
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