ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
अ॒यं पन्था॒ अनु॑वित्तः पुरा॒णो यतो॑ दे॒वा उ॒दजा॑यन्त॒ विश्वे॑। अत॑श्चि॒दा ज॑निषीष्ट॒ प्रवृ॑द्धो॒ मा मा॒तर॑ममु॒या पत्त॑वे कः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । पन्थाः॑ । अनु॑ऽवित्तः । पु॒रा॒णः । यतः॑ । दे॒वाः । उ॒त्ऽअजा॑यन्त । विश्वे॑ । अतः॑ । चि॒त् । आ । ज॒नि॒षी॒ष्ट॒ । प्रऽवृ॑द्धः । मा । मा॒तर॑म् । अ॒मु॒या । पत्त॑वे । क॒रिति॑ कः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे। अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरममुया पत्तवे कः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। पन्थाः। अनुऽवित्तः। पुराणः। यतः। देवाः। उत्ऽअजायन्त। विश्वे। अतः। चित्। आ। जनिषीष्ट। प्रऽवृद्धः। मा। मातरम्। अमुया। पत्तवे। करिति कः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
विषय - पुराण धर्ममार्ग
पदार्थ -
[१] (अयम्) = यह (पन्थाः) = धर्म का मार्ग (अनु-वित्तः) = गुरु-शिष्य परम्परया अनुक्रमेण जाना जाता है। (पुराण:) = यह सनातन है- सदा से चला आ रहा है-सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु ने इसका ज्ञान 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' इन चार ऋषियों को दिया। उनसे अगले ऋषियों ने प्राप्त किया और यह क्रम से चला आया। यह वह मार्ग है, (यतः) = जिससे (विश्वे देवा:) = सब देव (उद् अजायन्त) = उत्कर्षेण प्रादुर्भूत होते हैं। इस मार्ग पर चलने से दिव्य गुणों का विकास होता है। [२] (अतः) = इसी से (चित्) = निश्चयपूर्वक (आजनिषीष्ट) = मनुष्य विकास को प्राप्त हुआ और (प्रवृद्धः) = प्रकृष्ट बुद्धिवाला हुआ। (अमुया) = इस मार्ग पर चलने द्वारा (मातरम्) = इस वेदमाता को (पत्तवे मा क:) = पतन के लिए मत कर, अर्थात् वेदमाता द्वारा कहे हुए मार्ग का आक्रमण करता हुआ तू पतन से अपने को बचानेवाला हो । तेरे उत्कर्ष में ही वेदमाता का भी उत्कर्ष है। तेरे आचरण में हीनता के आने से वेद की भी निन्दा होगी कि 'वेद पढ़े हुए ऐसे ही होते हैं?'
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ने वेद द्वारा मार्ग का उपदेश दिया है। उस पर चलकर ही हम अपने विकास व उत्कर्ष को सिद्ध करते हैं ।
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