ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
ए॒ता ते॑ अग्न उ॒चथा॑नि वे॒धोऽवो॑चाम क॒वये॒ ता जु॑षस्व। उच्छो॑चस्व कृणु॒हि वस्य॑सो नो म॒हो रा॒यः पु॑रुवार॒ प्र य॑न्धि ॥२०॥
स्वर सहित पद पाठए॒ता । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । उ॒चथा॑नि । वे॒धः । अवो॑चाम । क॒वये॑ । ता । जु॒ष॒स्व॒ । उत् । शो॒च॒स्व॒ । कृ॒णु॒हि । वस्य॑सः । नः॒ । म॒हः । रा॒यः । पु॒रु॒ऽवा॒र॒ । प्र । य॒न्धि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एता ते अग्न उचथानि वेधोऽवोचाम कवये ता जुषस्व। उच्छोचस्व कृणुहि वस्यसो नो महो रायः पुरुवार प्र यन्धि ॥२०॥
स्वर रहित पद पाठएता। ते। अग्ने। उचथानि। वेधः। अवोचाम। कवये। ता। जुषस्व। उत्। शोचस्व। कृणुहि। वस्यसः। नः। महः। रायः। पुरुऽवार। प्र। यन्धि॥२०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 20
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
विषय - 'प्रभु प्रकाश प्रदीप्त' अन्तःकरण
पदार्थ -
[१] हे (वेधः) = विधातः, सृष्टि के रचनेवाले (अग्ने) = प्रभो ! (कवये) = सर्वज्ञ ते आपके लिये (एतः उचयानि) = इन स्तोत्रों को (अवोचाम) = बोलें। (ता जुषस्व) = उन स्तोत्रों को आप प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले होइये, आपके लिये वे स्तोत्र प्रिय हों। [२] (उत् शोचस्व) = आप मेरे हृदयाकाश में दीप्त होइये। (नः) = हमें (वस्यसः) = उत्कृष्ट जीवनवाला (कृणुहि) = करिये। हे (पुरुवार) = पालक व पूरक वरणीय वस्तुओंवाले प्रभो ! हमें (महो राय:) = महत्त्वपूर्ण धनों को (प्रयन्धि) दीजिये।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। हमारा हृदय प्रभु के प्रकाश से दीप्त हो। हमारा जीवन उत्तम बने और प्रभु हमें महत्त्वपूर्ण धनों को प्राप्त करायें। सम्पूर्ण सूक्त प्रभु स्मरण से जीवन को सुन्दर बनाने का उल्लेख कर रहा है। यही भाव अगले सूक्त में भी द्रष्टव्य है -
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