ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 1
आ वो॒ राजा॑नमध्व॒रस्य॑ रु॒द्रं होता॑रं सत्य॒यजं॒ रोद॑स्योः। अ॒ग्निं पु॒रा त॑नयि॒त्नोर॒चित्ता॒द्धिर॑ण्यरूप॒मव॑से कृणुध्वम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । राजा॑नम् । अ॒ध्व॒रस्य॑ । रु॒द्रम् । होता॑रम् । स॒त्य॒ऽयज॒म् । रोद॑स्योः । अ॒ग्निम् । पु॒रा । त॒न॒यि॒त्नोः । अ॒चित्ता॑त् । हिर॑ण्यऽरूपम् । अव॑से । कृ॒णु॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो राजानमध्वरस्य रुद्रं होतारं सत्ययजं रोदस्योः। अग्निं पुरा तनयित्नोरचित्ताद्धिरण्यरूपमवसे कृणुध्वम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। वः। राजानम्। अध्वरस्य। रुद्रम्। होतारम्। सत्यऽयजम्। रोदस्योः। अग्निम्। पुरा। तनयित्नोः। अचित्तात्। हिरण्यऽरूपम्। अवसे। कृणुध्वम्॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - [१] (वः) = तुम्हारे (अध्वरस्य) = इस जीवन-यज्ञ के (राजानम्) = दीप्त करनेवाले (रुद्रम्) = [रुत् द्रावयति] सब कष्टों का निवारण करनेवाले प्रभु को (अवसे) = रक्षा के लिये (आकृणुध्वम्) = अपने हृदयों में उपासित करो। उस प्रभु को, जो कि (होतारम्) = सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले हैं। जो (रोदस्योः) = द्यावापृथिवी के साथ (सत्य यजम्) = सत्य का मेल करनेवाले हैं, अर्थात् जो प्रभु मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान को तथा शरीररूप पृथिवी में दृढ़ता को स्थापित करनेवाले हैं। (अग्निम्) = जो निरन्तर उन्नति-पथ पर ले चलनेवाले हैं तथा (हिरण्यरूपम्) = ज्योतिर्मय रूपवाले हैं। [२] इस प्रभु का स्मरण (तनयित्नो:) = आकस्मिक पतनवाली अशनि [विद्युत्] के समान न जाने कब आ जानेवाली (अचित्तात्) = अचेतना, अर्थात् मृत्यु से (पुरा) = पहले ही उस प्रभु को अपने हृदयों में प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न करो। 'इह चेदवेदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:'। 'न जाने कब मृत्यु आ जाये', सो हमें सदा उस प्रभु की भावना से हृदय को भावित करने का प्रयत्न करना चाहिये। 'नहि प्रतीक्षते मृत्युः' मृत्यु हमारे प्रभु स्मरण के लिये प्रतीक्षा न करेगी। सदा प्रभु का स्मरण करेंगे तो प्रभु जैसे ही बन पायेंगे।
पदार्थ -
भावार्थ- हम मृत्यु से पूर्व ही प्रभु स्मरण का प्रयत्न करें। हमारा जीवन संसार की आसक्ति में ही न समाप्त हो जाए। प्रभु स्मरण का अभाव हमें विषयों के आक्रमण से न बचायेगा।