ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
अ॒यं योनि॑श्चकृ॒मा यं व॒यं ते॑ जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑। अ॒र्वा॒ची॒नः परि॑वीतो॒ नि षी॑दे॒मा उ॑ ते स्वपाक प्रती॒चीः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । योनिः॑ । च॒कृ॒म । यम् । व॒यम् । ते॒ । जा॒याऽइ॑व । पत्ये॑ । उ॒श॒ती । सु॒ऽवासाः॑ । अ॒र्वा॒ची॒नः । परि॑ऽवीतः । नि । सी॒द॒ । इ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । सु॒ऽअ॒पा॒क॒ । प्र॒ती॒चीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं योनिश्चकृमा यं वयं ते जायेव पत्य उशती सुवासाः। अर्वाचीनः परिवीतो नि षीदेमा उ ते स्वपाक प्रतीचीः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। योनिः। चकृम। यम्। वयम्। ते। जायाऽइव। पत्ये। उशती। सुऽवासाः। अर्वाचीनः। परिऽवीतः। नि। सीद। इमाः। ऊम् इति। ते। सुऽअपाक। प्रतीचीः॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - शरीर को प्रभु का निवास स्थान बनाना
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (अयम्) = यह मेरा शरीर [हृदय] (योनिः) = आपका गृह है, (यम्) = जिसको (वयम्) = हम (ते) = आपके लिये (चकृमा) = करते हैं। शरीर को बड़ा परिशुद्ध करके, इस नीरोग शरीर में हृदय को बड़ा निर्मल बनाकर, उसमें प्रभु को बिठाना चाहिये । हम इस गृह को इस प्रकार आपके लिये संस्कृत करते हैं (इव) = जिस प्रकार (उशती) = कामयमाना, पति प्राप्ति के लिये कामना करती हुई (सुवासाः) = शोभन वस्त्रोंवाली (जाया) = पत्नी (पत्ये) = पति के लिये स्थान को बनाती है। जीवात्मा पत्नी स्थानापन्न है। उसने प्रभुरूप पति को प्राप्त करने की कामनावाला होना। पति के स्वागत के लिये गृह को स्वच्छ करना। इसी प्रकार जीव प्रभु के स्वागत के लिये हृदय-मन्दिर को बड़ा पवित्र बनाता है। [२] हे प्रभो ! (अर्वाचीन:) = हमारे अभिमुख होते हुए (परिवीत:) = [वी परिदेवने] तेजस्विता से चमकते हुए आप (निषीद) = हमारे हृदय में स्थित होइये । हे (स्वपाक) = [सु अपाक] शोभन कर्मोंवाले प्रभो! (उ) = निश्चय से (ते) = आपकी (इमा:) = ये ज्ञानरश्मियाँ (प्रतीचीः) = हमारे प्रति प्राप्त होनेवाली होती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम अपने हृदय को शुद्ध करके उसे प्रभु का गृह बनायें। उस सर्वतः तेजोमय प्रभु की कान्तियाँ हमें प्राप्त हों ।
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