ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
का सु॑ष्टु॒तिः शव॑सः सू॒नुमिन्द्र॑मर्वाची॒नं राध॑स॒ आ व॑वर्तत्। द॒दिर्हि वी॒रो गृ॑ण॒ते वसू॑नि॒ स गोप॑तिर्नि॒ष्षिधां॑ नो जनासः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठका । सु॒ऽस्तु॒तिः । शव॑सः । सू॒नुम् । इन्द्र॑म् । अ॒र्वा॒ची॒नम् । राध॑से । आ । व॒व॒र्त॒त् । द॒दिः । हि । वी॒रः । गृ॒ण॒ते । वसू॑नि । सः । गोऽप॑तिः । निः॒ऽसिधा॑म् । नः॒ । ज॒ना॒सः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
का सुष्टुतिः शवसः सूनुमिन्द्रमर्वाचीनं राधस आ ववर्तत्। ददिर्हि वीरो गृणते वसूनि स गोपतिर्निष्षिधां नो जनासः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठका। सुऽस्तुतिः। शवसः। सूनुम्। इन्द्रम्। अर्वाचीनम्। राधसे। आ। ववर्तत्। ददिः। हि। वीरः। गृणते। वसूनि। सः। गोऽपतिः। निःऽसिधाम्। नः। जनासः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्रियों के रक्षक प्रभु
पदार्थ -
[१] (का) = क्या अद्भुत (सुष्टुतिः) = यह उत्तम स्तुति है, जो कि (शवसः सूनुम्) = बल के पुत्रबल के पुतले-बल के पुञ्ज सर्वशक्तिमान् उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (अर्वाचीनम्) = हमारे अभिमुख (राधसे) = सम्पत्ति के लिए (आववर्तत्) = आवृत्त करती है। हम प्रभु का स्तवन करते हैंस्तुति द्वारा प्रभु को अपने अभिमुख करते हैं, अभिमुखीभूत प्रभु हमारे लिए कार्यसाधक धनों को प्राप्त कराते हैं । [२] (वीर:) = सब शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले प्रभु (गृणते) = स्तोता के लिए (हि) = निश्चयपूर्वक (वसूनि ददिः) = वसुओं को देते हैं। सब धनों को प्राप्त करानेवाले प्रभु हैं। [३] हे (जनासः) = लोगो ! (सः) - वे प्रभु (नः) = हमारे में से (निष्षिधाम्) = वासनाओं के निषेध करनेवालों के (गोपतिः) = इन्द्रियों के रक्षक हैं। प्रभुस्मरण द्वारा हम वासनाओं का निषेध करते हैं। ऐसा करने पर प्रभु हमारी इन्द्रियों का रक्षण करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- स्तुति द्वारा प्रभु को हम अपने अभिमुख करें। वे प्रभु हमें आवश्यक धन प्राप्त कराते हैं। हमारी इन्द्रियों का रक्षण करते हैं। प्रभुस्मरण से इन्द्रियवृत्तियाँ ठीक बनी रहती हैं।
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