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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स वृ॑त्र॒हत्ये॒ हव्यः॒ स ईड्यः॒ स सुष्टु॑त॒ इन्द्रः॑ स॒त्यरा॑धाः। स याम॒न्ना म॒घवा॒ मर्त्या॑य ब्रह्मण्य॒ते सुष्व॑ये॒ वरि॑वो धात् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । हव्यः॑ । सः । ईड्यः॑ । सः । सुऽस्तु॑तः । इन्द्रः॑ । स॒त्यऽरा॑धाः । सः । याम॑न् । आ । म॒घऽवा॑ । मर्त्या॑य । ब्र॒ह्म॒ण्य॒ते । सुष्व॑ये । वरि॑वः । धा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स वृत्रहत्ये हव्यः स ईड्यः स सुष्टुत इन्द्रः सत्यराधाः। स यामन्ना मघवा मर्त्याय ब्रह्मण्यते सुष्वये वरिवो धात् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। वृत्रऽहत्ये। हव्यः। सः। ईड्यः। सः। सुऽस्तुतः। इन्द्रः। सत्यऽराधाः। सः। यामन्। आ। मघऽवा। मर्त्याय। ब्रह्मण्यते। सुस्वये। वरिवः। धात् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (सः) = वे प्रभु (वृत्रहत्ये) = वासनारूप वृत्र के विनाश के निमित्त (हव्यः) = पुकारने योग्य हैं। (सः) = वे प्रभु ही (ईड्यः) स्तुति के योग्य हैं। (सुष्टुतः) = उत्तम स्तुति किये गये (सः) = वे (इन्द्रः) = प्रभु (सत्यराधाः) = सत्य धनवाले हैं - वास्तविक ऐश्वर्यवाले हैं। (२) (सः) = वे (मघवा) = परमैश्वर्यवाले प्रभु (यामन्) = जीवनयात्रा में उस (मर्त्याय) = मनुष्य के लिए (वरिवः) = धन को आधात् धारण करते हैं, जो कि (ब्रह्मण्यते) = ज्ञानवाणियों की कामनावाला होता है और (सुष्वये) = सोम का सम्पादन करता है- सोम को अपने अन्दर उत्पन्न करता है। इस सोमरक्षण द्वारा ही वस्तुतः वह अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त कर पाता है।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करते हैं- प्रभु हमारी वासना का विनाश करते हैं। प्रभु ही जीवनयात्रा की पूर्ति के लिए सत्यधन को प्राप्त कराते हैं। हम ज्ञानप्राप्ति की कामनावाले बनें और सोम का सम्पादन करें- प्रभु हमारे लिए धन प्राप्त कराएँगे ।

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