ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
ए॒वा स॒त्यं म॑घवाना यु॒वं तदिन्द्र॑श्च सोमो॒र्वमश्व्यं॒ गोः। आद॑र्दृत॒मपि॑हिता॒न्यश्ना॑ रिरि॒चथुः॒ क्षाश्चि॑त्ततृदा॒ना ॥५॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । स॒त्यम् । म॒घ॒वा॒ना॒ । यु॒वम् । तत् । इन्द्रः॑ । च॒ । सो॒म॒ । ऊ॒र्वम् । अश्व्य॑म् । गोः । आ । अ॒द॒र्दृ॒त॒म् । अपि॑ऽहितानि । अश्ना॑ । रि॒रि॒चथुः॑ । क्षाः । चि॒त् । त॒तृ॒दा॒ना ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा सत्यं मघवाना युवं तदिन्द्रश्च सोमोर्वमश्व्यं गोः। आदर्दृतमपिहितान्यश्ना रिरिचथुः क्षाश्चित्ततृदाना ॥५॥
स्वर रहित पद पाठएव। सत्यम्। मघऽवाना। युवम्। तत्। इन्द्रः। च। सोम। ऊर्वम्। अश्व्यम्। गोः। आ। अदर्दृतम्। अपिऽहितानि। अश्ना। रिरिचथुः। क्षाः। चित्। ततृदाना ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
विषय - इन्द्रियों का समादर
पदार्थ -
[१] हे (सोम) = सोम! तू (च) = और (इन्द्रः) = वह शत्रु विनाशक प्रभु (युवम्) = आप दोनों (एवा) = इस प्रकार (सत्यम्) = सचमुच ही (तत्) = उस (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रियों के समूह को और (गोः ऊर्वम्) = ज्ञानेन्द्रियों के समूह को (आदर्दृतम्) = [आदरयतम्] आदृत करो। इनको काम-क्रोध आदि से आक्रान्त न होने देकर इनको पवित्र बनाए रखो। इन्द्रियों की पवित्रता के लिए आवश्यक है कि हम इन्हें विषयों में फँसने से बचाएँ। हमारे जीवन का लक्ष्य सोम का रक्षण हो तथा हम उस शत्रु-विद्रावक प्रभु का स्मरण करें। [२] (अश्ना) = नाना प्रकार के विषयों के खाने की वृत्ति से (अपिहितानि) = आच्छादित हुई हुई इन इन्द्रियों को इन्द्र और सोम (रिरिचथुः) = रिक्त करते हैं इन्हें इन विषयों में नहीं फँसने देते । (ततृदाना) = शत्रुओं के हिंसक सोम और इन्द्र (क्षाः चित्) = इन शरीर-भूमियों को भी रोग आदि से रिक्त करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण को जीवन का लक्ष्य बनाकर इन्द्र का स्मरण करते हुए हम इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करते हैं। शरीरों को नीरोग बनाते हैं। सूक्त का भाव यही है कि हम वासनारूप शत्रुओं को जीतकर सूर्यसम तेजस्वी बनें और प्रभु को प्राप्त करें। उपासना से शक्तिप्राप्ति के भाव से ही अगले सूक्त का प्रारम्भ है
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