Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 28 के मन्त्र
1 2 3 4 5
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    ए॒वा स॒त्यं म॑घवाना यु॒वं तदिन्द्र॑श्च सोमो॒र्वमश्व्यं॒ गोः। आद॑र्दृत॒मपि॑हिता॒न्यश्ना॑ रिरि॒चथुः॒ क्षाश्चि॑त्ततृदा॒ना ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । स॒त्यम् । म॒घ॒वा॒ना॒ । यु॒वम् । तत् । इन्द्रः॑ । च॒ । सो॒म॒ । ऊ॒र्वम् । अश्व्य॑म् । गोः । आ । अ॒द॒र्दृ॒त॒म् । अपि॑ऽहितानि । अश्ना॑ । रि॒रि॒चथुः॑ । क्षाः । चि॒त् । त॒तृ॒दा॒ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा सत्यं मघवाना युवं तदिन्द्रश्च सोमोर्वमश्व्यं गोः। आदर्दृतमपिहितान्यश्ना रिरिचथुः क्षाश्चित्ततृदाना ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। सत्यम्। मघऽवाना। युवम्। तत्। इन्द्रः। च। सोम। ऊर्वम्। अश्व्यम्। गोः। आ। अदर्दृतम्। अपिऽहितानि। अश्ना। रिरिचथुः। क्षाः। चित्। ततृदाना ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजागुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे सोम ! मघवाना युवं यत्सत्यं गोरूर्वमश्व्यं प्राप्य शत्रूनादर्दृतं तदिन्द्रः सङ्गृह्य शत्रून् हिंस्याद् यान्यपिहितान्यश्ना रिरिचथुः क्षाश्च चिद्रिरिचथुस्ताः प्राप्य दुष्टानां ततृदाना स्यातामेवमेवेन्द्रः स्यात् ॥५॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सत्यम्) (मघवाना) बहुधनयुक्तौ राजप्रजाजनौ (युवम्) (तत्) (इन्द्रः) राजा (च) (सोम) सोम्यगुणसम्पन्नौ (ऊर्वम्) आच्छादकम् (अश्व्यम्) अश्वेषु भवम् (गोः) पृथिव्याः (आ) (अदर्दृतम्) भृशं विदारयतम् (अपिहितानि) आच्छादितानि (अश्ना) भोक्तव्यानि (रिरिचथुः) रेचताम् (क्षाः) पृथिवीः (चित्) (ततृदाना) दुःखस्य हिंसकौ ॥५॥

    भावार्थः

    यदि राजाऽमात्यसेनाप्रजाजनाः परस्परस्मिन् प्रीतिं विधाय राज्यशासनं कुर्य्युस्तर्ह्येषां कोऽपि शत्रुर्नोपतिष्ठेतेति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इत्यष्टाविंशतितमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजप्रजा के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सोम) उत्तम गुणों से युक्त (मघवाना) बहुत धनों से युक्त राजा और प्रजाजनो (युवम्) आप दोनों जो (सत्यम्) सत्य (गोः) पृथिवी का (ऊर्वम्) ढाँपनेवाला (अश्व्यम्) घोड़ों में उत्पन्न हुए को प्राप्त होकर शत्रुओं को (आ, अदर्दृतम्) निरन्तर नाश करो (तत्) उसको (इन्द्रः) राजा ग्रहण करके शत्रुओं का नाश करे और जिन (अपिहितानि) घिरे हुए (अश्ना) भोग करने योग्य पदार्थों को (रिरिचथुः) छोड़ो (क्षाः, च) पृथिवियों को (चित्) भी छोड़ो, उनको प्राप्त होकर दुष्ट संबन्धी (ततृदाना) दुःख के नाश करनेवाले होवें, इस प्रकार से (एव) ऐसे ही राजा भी होवे ॥५॥

    भावार्थ

    जो राजा, मन्त्री, सेना और प्रजाजन परस्पर में स्नेह करके राज्य शिक्षा करें तो इनका कोई भी शत्रु नहीं उपस्थित हो ॥५॥ इस सूक्त में राजा और प्रजादि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह अट्ठाईसवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्रियों का समादर

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = सोम! तू (च) = और (इन्द्रः) = वह शत्रु विनाशक प्रभु (युवम्) = आप दोनों (एवा) = इस प्रकार (सत्यम्) = सचमुच ही (तत्) = उस (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रियों के समूह को और (गोः ऊर्वम्) = ज्ञानेन्द्रियों के समूह को (आदर्दृतम्) = [आदरयतम्] आदृत करो। इनको काम-क्रोध आदि से आक्रान्त न होने देकर इनको पवित्र बनाए रखो। इन्द्रियों की पवित्रता के लिए आवश्यक है कि हम इन्हें विषयों में फँसने से बचाएँ। हमारे जीवन का लक्ष्य सोम का रक्षण हो तथा हम उस शत्रु-विद्रावक प्रभु का स्मरण करें। [२] (अश्ना) = नाना प्रकार के विषयों के खाने की वृत्ति से (अपिहितानि) = आच्छादित हुई हुई इन इन्द्रियों को इन्द्र और सोम (रिरिचथुः) = रिक्त करते हैं इन्हें इन विषयों में नहीं फँसने देते । (ततृदाना) = शत्रुओं के हिंसक सोम और इन्द्र (क्षाः चित्) = इन शरीर-भूमियों को भी रोग आदि से रिक्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण को जीवन का लक्ष्य बनाकर इन्द्र का स्मरण करते हुए हम इन्द्रियों को विषयों से मुक्त करते हैं। शरीरों को नीरोग बनाते हैं। सूक्त का भाव यही है कि हम वासनारूप शत्रुओं को जीतकर सूर्यसम तेजस्वी बनें और प्रभु को प्राप्त करें। उपासना से शक्तिप्राप्ति के भाव से ही अगले सूक्त का प्रारम्भ है

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    राष्ट्र में कृषि और खानें खोदने के कार्य को प्रवृत्त करना ।

    भावार्थ

    हे (सोम) अन्नादि समृद्धि के उत्पन्न करने वाले प्रजाजन ! (इन्द्रः च) और ऐश्वर्यवान् राजा (युवं) आप दोनों (मघवाना) ऐश्वर्य से युक्त होकर (गोः) वाणी के (तत्) उस (सत्यं) सत्य ज्ञान को और (गोः) पृथिवी के (तत्) उस (ऊर्वम्) शत्रुहिंसक (अश्व्यम्) घोड़ों के बने सैन्य को (आदर्दृतम्) आदरपूर्वक स्वीकार करो और (क्षाः चित्) भूमियों को प्रजाहिंसक शत्रु-सेनाओं को (ततृदाना) कृषि, खनि और युद्ध द्वारा खोदते और तोड़ते हुए (अश्ना) नाना प्रकार के भोग्य अन्न सुवर्णादि ऐश्वर्यो को (रिरिचथुः) प्राप्त करो । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट्- त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे राजे, मंत्री, सेना व प्रजाजन परस्पर स्नेह करून राज्य शासन करतात तेव्हा त्यांचा कोणीही शत्रू नसतो. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    It is true, O potent commanders of honour and excellence, Indra and Soma, destroyer of evil and creator of peace and prosperity, together you release the earth’s vast energy and progressive forces, break open the resources of wealth and fertility, and release the lands from oppression into freedom.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top