ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
म॒हश्च॑र्क॒र्म्यर्व॑तः क्रतु॒प्रा द॑धि॒क्राव्णः॑ पुरु॒वार॑स्य॒ वृष्णः॑। यं पू॒रुभ्यो॑ दीदि॒वांसं॒ नाग्निं द॒दथु॑र्मित्रावरुणा॒ ततु॑रिम् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठम॒हः । च॒र्क॒र्मि॒ । अर्व॑तः । क्र॒तु॒ऽप्राः । द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । पु॒रु॒ऽवार॑स्य । वृष्णः॑ । यम् । पू॒रुऽभ्यः॑ । दी॒दि॒ऽवांसम् । न । अ॒ग्निम् । द॒दथुः॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ततु॑रिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महश्चर्कर्म्यर्वतः क्रतुप्रा दधिक्राव्णः पुरुवारस्य वृष्णः। यं पूरुभ्यो दीदिवांसं नाग्निं ददथुर्मित्रावरुणा ततुरिम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठमहः। चर्कर्मि। अर्वतः। क्रतुऽप्राः। दधिऽक्राव्णः। पुरुऽवारस्य। वृष्णः। यम्। पूरुऽभ्यः। दीदिऽवांसम्। न। अग्निम्। ददथुः। मित्रावरुणा। ततुरिम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
विषय - 'ततुरि' दधिक्राव्ण-तारक मन
पदार्थ -
[१] (क्रतुप्राः) = यज्ञों का पूरण करनेवाला- यज्ञों के द्वारा ही शक्ति व प्रज्ञान को अपने अन्दर भरनेवाला मैं (दधिक्राव्णः) = हमारा धारण करके गति करनेवाले इस मन की (चर्कर्मि) = अत्यन्त स्तुति करता हूँ, जो कि (महः) = महान् है, (अर्वतः) = सब बुराइयों का संहार करनेवाला है, (पुरुवारस्य) = पालक व पूरक और अतएव वरणीय है, (वृष्णः) = शक्तिशाली है । [२] उस दधिक्रावा मन का मैं स्तवन करता हूँ, (यम्) = जिसको (पूरुभ्यः) = अपने नियत कर्म का पालन करनेवाले मनुष्यों के लिए (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण (ददथुः) = देते । मित्र और वरुण देते हैं इसका भाव यह है कि हम इस मन को स्नेह की भावनावाला (मित्र) तथा द्वेष भावना से रहित (वरुण) बनाने का प्रयत्न करें। ऐसा ही मन (अग्निं न दीदिवांसम्) = अग्नि की तरह देदीप्यमान होता है। तथा (ततुरिम्) = हमें इस भवसागर से तरानेवाला होता है ।
भावार्थ - भावार्थ– यज्ञों में लगे रहकर हम अपने मन को स्नेहयुक्त व निर्दोष बनाएँ । यही मन हमें भवसागर से तरानेवाला होगा।
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