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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दध्रिकाः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    म॒हश्च॑र्क॒र्म्यर्व॑तः क्रतु॒प्रा द॑धि॒क्राव्णः॑ पुरु॒वार॑स्य॒ वृष्णः॑। यं पू॒रुभ्यो॑ दीदि॒वांसं॒ नाग्निं द॒दथु॑र्मित्रावरुणा॒ ततु॑रिम् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः । च॒र्क॒र्मि॒ । अर्व॑तः । क्र॒तु॒ऽप्राः । द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । पु॒रु॒ऽवार॑स्य । वृष्णः॑ । यम् । पू॒रुऽभ्यः॑ । दी॒दि॒ऽवांसम् । न । अ॒ग्निम् । द॒दथुः॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ततु॑रिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महश्चर्कर्म्यर्वतः क्रतुप्रा दधिक्राव्णः पुरुवारस्य वृष्णः। यं पूरुभ्यो दीदिवांसं नाग्निं ददथुर्मित्रावरुणा ततुरिम् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महः। चर्कर्मि। अर्वतः। क्रतुऽप्राः। दधिऽक्राव्णः। पुरुऽवारस्य। वृष्णः। यम्। पूरुऽभ्यः। दीदिऽवांसम्। न। अग्निम्। ददथुः। मित्रावरुणा। ततुरिम् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा ! पूरुभ्यो यं ततुरिं दीदिवांसमग्निं न विनयं ददथुस्तस्य पुरुवारस्य दधिक्राव्णो वृष्णो ये क्रतुप्रास्तान् महोऽर्वतोऽहं कार्य्यं चर्कर्मि ॥२॥

    पदार्थः

    (महः) महतः (चर्कर्मि) भृशं करोति (अर्वतः) अश्वानिव (क्रतुप्राः) ये प्रज्ञां पूरयन्ति ते (दधिक्राव्णः) यो विद्याधरान् कामयते तस्य (पुरुवारस्य) बहूत्तमजनस्वीकृतस्य (वृष्णः) सुखानां वर्षकस्य (यम्) (पूरुभ्यः) बहुभ्यः (दीदिवांसम्) देदीप्यमानम् (न) इव (अग्निम्) पावकम् (ददथुः) (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ (ततुरिम्) त्वरमाणम् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । यो राजा प्रज्ञान् प्रज्ञाप्रदान् सदा धरति स सूर्य्य इव प्रतापी सन् सद्यः स्वकार्य्यं साद्धुं शक्नोति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान सभा और सेना के ईश आप दो जन (पूरुभ्यः) बहुतों से (यम्) जिस (ततुरिम्) शीघ्रता करते हुए (दीदिवांसम्) प्रकाशमान (अग्निम्) अग्नि के (न) सदृश विनय को (ददथुः) देते हैं उस (पुरुवारस्य) बहुत श्रेष्ठ जनों से स्वीकार किय गये और (दधिक्राव्णः) विद्या की धारणा करनेवालों की कामना करने और (वृष्णः) सुखों के वर्षानेवाले के जो (क्रतुप्राः) बुद्धि के पूर्ण करनेवाले उन (महः) बड़े (अर्वतः) घोड़ों के सदृशों को और कार्य्य को मैं (चर्कर्मि) निरन्तर करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा बुद्धिवाले और बुद्धि के देनेवालों को सदा धारण करता है, वह सूर्य्य के सदृश प्रतापी होता हुआ शीघ्र अपने कार्य्य को सिद्ध कर सकता है ॥२॥

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    विषय

    'ततुरि' दधिक्राव्ण-तारक मन

    पदार्थ

    [१] (क्रतुप्राः) = यज्ञों का पूरण करनेवाला- यज्ञों के द्वारा ही शक्ति व प्रज्ञान को अपने अन्दर भरनेवाला मैं (दधिक्राव्णः) = हमारा धारण करके गति करनेवाले इस मन की (चर्कर्मि) = अत्यन्त स्तुति करता हूँ, जो कि (महः) = महान् है, (अर्वतः) = सब बुराइयों का संहार करनेवाला है, (पुरुवारस्य) = पालक व पूरक और अतएव वरणीय है, (वृष्णः) = शक्तिशाली है । [२] उस दधिक्रावा मन का मैं स्तवन करता हूँ, (यम्) = जिसको (पूरुभ्यः) = अपने नियत कर्म का पालन करनेवाले मनुष्यों के लिए (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण (ददथुः) = देते । मित्र और वरुण देते हैं इसका भाव यह है कि हम इस मन को स्नेह की भावनावाला (मित्र) तथा द्वेष भावना से रहित (वरुण) बनाने का प्रयत्न करें। ऐसा ही मन (अग्निं न दीदिवांसम्) = अग्नि की तरह देदीप्यमान होता है। तथा (ततुरिम्) = हमें इस भवसागर से तरानेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ– यज्ञों में लगे रहकर हम अपने मन को स्नेहयुक्त व निर्दोष बनाएँ । यही मन हमें भवसागर से तरानेवाला होगा।

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    विषय

    राष्ट्र का संचालक, धारक राजा ‘दधिक्रा’ उसका अभिषेक ।

    भावार्थ

    (दधि-क्राव्णः) ज्ञानैश्वर्य के धारक विद्वानों की कामना करने वाले (पुरु-वारस्य) बहुत सों से वरण करने योग्य (वृष्णः) मेघवत् प्रजा पर सुखों की वृष्टि करने वाले पुरुष के (अर्वतः) विद्वानों और (क्रतुप्राः) उसके ज्ञानों और यज्ञों को पूर्ण करने वाले (महः) बड़े २ पुरुषों की मैं सेवा (चर्कर्मि) सेवा करता हूं अथवा, मैं ज्ञानपूरक पुरुष, उस महान् शत्रुहिंसक की सेवा करूं (यं) जिसको (मित्रावरुणा) दिन रात जिस प्रकार सूर्य को धारण करते और प्राण उदान जिस प्रकार देह में आत्मा को धारण करते हैं उसी प्रकार मित्र और वरुण, न्यायपति और सेनापति दोनों (दीदिवांसं) तेजस्वी (अग्निम्) अग्नि के तुल्य, और (ततुरिम्) शीघ्र कार्यकारी, अप्रमादी पुरुष अग्रणी नायक रूप से (पुरुभ्यः) समृद्ध प्रजाजनों के हितार्थ (ददथुः) देते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ दधिक्रा देवता॥ छन्दः- १, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, स्वराट् पंक्तिः। ६ अनुष्टुप॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो राजा बुद्धिमान व बुद्धी देणाऱ्यांना सदैव बाळगतो तो सूर्याप्रमाणे पराक्रमी बनून तात्काळ आपले कार्य सिद्ध करू शकतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, President of the Council and commander of the army, dear as pranic energies of life, inspired and enlightened, I praise the mighty war horse, Dadhikra, sustainer of sustainers, a shower of blessings, saviour of the people, a gift swift and blazing as fire, which you have given for the sake of noble humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a king are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Council of Ministers and Commander-in-Chief of the army! both of you are like the true vital breaths-Prana and Udana. I make proper use of the speedy horses and exercise great powers of the king who loves great scholars, and is accepted by many good men. He is showerer of happiness and is endowed with virtues which are full of wisdom. You give humility to a prompt person who shines with knowledge, like the fire, for the good of many. I impel such a person to do noble deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The king who upholds, and properly maintains the wisemen and counselors, can accomplish all good works because he is powerful like the sun.

    Foot Notes

    (दधिक्राव्णः ) यो विद्याधरान् कामयते तस्य । He who desires or loves great scholars. (मित्रावरुणा ) प्राणोदानाविव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ प्राणोदानौ मित्रावरुणौ (Stph. 3, 2, 2, 13) प्रानोदानौ वै मित्रावरुणौ (Stph. 1. 8. 3. 12. || 11. 3. 6. 1. 16. 1 5. 3. 5. 34 11) = The President of the Council of Ministers and Commander-in- Chief of the army who are like two vital airs-Prana and Udana.

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