ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
द॒धि॒क्राव्णो॑ अकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिनः॑। सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठद॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । अ॒का॒रि॒ष॒म् । जि॒ष्णोः । अश्व॑स्य । वा॒जिनः॑ । सु॒र॒भि । नः॒ । मुखा॑ । क॒र॒त् । प्र । नः॒ । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा करत्प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठदधिऽक्राव्णः। अकारिषम्। जिष्णोः। अश्वस्य। वाजिनः। सुरभि। नः। मुखा। करत्। प्र। नः। आयूंषि। तारिषत् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो नो मुखा सुरभि करन्न आयूंषि प्रतारिषत्तस्य दधिक्राव्णोऽश्वस्य वाजिनो जिष्णो राज्ञो यथाहमाज्ञामकारिषं तथैव यूयमपि कुरुत ॥६॥
पदार्थः
(दधिक्राव्णः) धर्मधरस्य क्रमयितुर्वा (अकारिषम्) कुर्य्याम् (जिष्णोः) जयशीलस्य (अश्वस्य) सकलशुभगुणव्याप्तस्य (वाजिनः) विज्ञानवतः (सुरभि) सुगन्धादिगुणयुक्तं द्रव्यम् (नः) अस्माकम् (मुखा) मुखेन सहचरितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि प्रति (करत्) कुर्य्यात् (प्र) (नः) अस्माकम् (आयूंषि) (तारिषत्) वर्द्धयेत् ॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यो राजा सुगन्धादियुक्तघृतादिहोमेन वायुवृष्टिजलादिं शोधयित्वा सर्वेषां रोगान्निवार्य्याऽऽयूंषि वर्धयति प्रयत्नेन सर्वाः प्रजाः पुत्रवत्पालयति च सोऽस्माभिः पितृवत्सत्कर्त्तव्योऽस्तीति ॥६॥ अत्र राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥६॥ इत्येकोनचत्वारिंशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (नः) हम लोगों के (मुखा) मुख के सहचरित श्रवण आदि इन्द्रियों के प्रति (सुरभि) सुगन्ध आदि गुणों से युक्त द्रव्य को (करत्) करे और (नः) हम लोगों की (आयूंषि) अवस्थाओं को (प्र, तारिषत्) बढ़ावे उस (दधिक्राव्णः) धर्म को धारण करने वा चलानेवाले (अश्वस्य) सम्पूर्ण उत्तम गुणों में व्याप्त (वाजिनः) विज्ञानवाले (जिष्णोः) जयशील राजा की जिस प्रकार मैं आज्ञा को (अकारिषम्) करूँ, वैसे ही आप लोग भी करो ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो राजा सुगन्ध आदि से युक्त घृत आदि के होम से वायु वृष्टि जलादि को पवित्र कर सब के रोगों का निवारण करके अवस्थाओं को बढ़ाता है और प्रयत्न से सब प्रजाओं का पुत्र के सदृश पालन करता है, वह हम लोगों को पिता के सदृश सत्कार करने योग्य है ॥६॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥६॥ यह उनतालीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
मधुरभाषण व दीर्घजीवन
पदार्थ
[१] मैं (दधिक्राव्णः) = धारण करके गति करनेवाले इस मन का (अकारिषम्) = स्तवन करता हूँ । जो मन (जिष्णो:) = विजयशील है, (अश्वस्य) = [अशू व्याप्तौ] सदा कर्मों में व्याप्त होनेवाला है, (वाजिनः) = जो शक्तिशाली है। इस मन को मैं अपने अनुकूल करने का प्रयत्न करता हूँ। [२] यह दधिक्रावा [मन] (नः) = हमारे (मुखा) = मुखों को (सुरभि करत्) = सुगन्धित करता है और (न:) = हमारे (आयूंषि) = आयुष्यों को (प्रतारिषत्) = अत्यन्त दीर्घ करता है। मन के वशीभूत होने पर हम मधुर शब्द बोलते हैं और दीर्घजीवनवाले बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- मन 'जिष्णु, अश्व व वाजी' है । इसको वशीभूत करके हम मधुरभाषी व दीर्घजीवी बनते हैं। अगले सूक्त का प्रारम्भ भी इसी दधिक्रावा के वर्णन से करते हैं -
विषय
उनकी उपासना ।
भावार्थ
मैं (दधिक्राव्णः) न्याय मार्ग पर चलने वाले वा सर्वधारक सर्वचालक, (जिष्णोः) सर्वविजयी (अश्वस्य) सर्वव्यापक, सबके उत्तम गुणों के धारक, (वाजिनः) ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान्, ईश्वर और राजा के (अकारिषं) उपासना और आज्ञा का पालन करूं । वह (नः) हमारे (मुखा) चक्षु आदि इन्द्रिय रूप मुख्य अंगों को (सुरभि करत्) उत्तम कर्म करने में समर्थ, दृढ़ (करत्) करे । और (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों की (प्र तारिषत्) खूब वृद्धि करे । इति त्रयोदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ दधिक्रा देवता॥ छन्दः- १, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, स्वराट् पंक्तिः। ६ अनुष्टुप॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो राजा सुगंधाने युक्त घृत इत्यादींचा होम करून वायू, वृष्टी, जल इत्यादींना पवित्र करून सर्वांच्या रोगांचे निवारण करून आयुष्य वाढवितो व प्रयत्नपूर्वक सर्व प्रजेचे पुत्राप्रमाणे पालन करतो त्याचा आम्ही पित्याप्रमाणे सत्कार करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We sing in praise of Dadhikra, divine energy, victorious, all achieving spirit and power, who may, we pray, refine our sense of taste and other refinements and may help us live a full and healthy life across the floods of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a ruler and his subjects are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! indeed I obey to the orders of the king, upholder or impeller of Dharma, endowed with all good virtues and knowledge and is conqueror. He, in fact, makes our mouths and other senses full of fragrant things and prolongs our lives. In the same manner, you should also do.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! that king should be honored by us like a father who by performing Homa or Yajna (non-violent sacrifice) with ghee, fragrant and nourishing articles purifies air and water and thus removes their diseases, prolongs their lives and wishes his subjects intensely like his own sons.
Foot Notes
(दधिक्राव्णः ) धर्मधरस्य क्रमवितुर्वा । = Of the king who is upholder or impeller of Dharma (righteousness). (अश्वस्य ) सकलशुभगुणव्याप्तस्य । = Pervading in or endowed with all good virtues. (मुखा ) मुखेन सहचरितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि प्रति । = Mouths and other senses like ears etc.
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