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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दध्रिकाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो अश्व॑स्य दधि॒क्राव्णो॒ अका॑री॒त्समि॑द्धे अ॒ग्ना उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ। अना॑गसं॒ तमदि॑तिः कृणोतु॒ स मि॒त्रेण॒ वरु॑णेना स॒जोषाः॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अश्व॑स्य । द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । अका॑रीत् । सम्ऽइ॑द्धे । अ॒ग्नौ । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । अना॑गसम् । तम् । अदि॑तिः । कृ॒णो॒तु॒ । सः । मि॒त्रेण॑ । वरु॑णेन । स॒ऽजोषाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अश्वस्य दधिक्राव्णो अकारीत्समिद्धे अग्ना उषसो व्युष्टौ। अनागसं तमदितिः कृणोतु स मित्रेण वरुणेना सजोषाः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अश्वस्य। दधिऽक्राव्णः। अकारीत्। सम्ऽइद्धे। अग्नौ। उषसः। विऽउष्टौ। अनागसम्। तम्। अदितिः। कृणोतु। सः। मित्रेण। वरुणेन। सऽजोषाः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजाकृत्यमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो विद्वान् दधिक्राव्णोऽश्वस्योषसो व्युष्टौ समिद्धेऽग्नावनागसमकारीत् तमदितिरनागसं कृणोतु स च मित्रेण वरुणेन सजोषा भवेत् ॥३॥

    पदार्थः

    (यः) (अश्वस्य) महतो व्याप्तविद्यस्य (दधिक्राव्णः) धारकाणां क्रमयितुः (अकारीत्) करोति (समिद्धे) प्रदीप्ते (अग्नौ) विद्युद्रूपे पावके (उषसः) प्रभातस्य (व्युष्टौ) विविधरूपायां सेवायाम् (अनागसम्) अनपराधम् (तम्) (अदितिः) माता पिता वा (कृणोतु) (सः) (मित्रेण) (वरुणेन) श्रेष्ठेन। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योग्नावबादीनां पदार्थानां संयोगं कर्त्तुं विजानीयात्। यश्च सज्जनैः सह मित्रतां कृत्वा प्रातरुत्थाय सत्कर्माणि करोति स एव सदैव प्रसन्नो भवतीति विजानीत ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजाकृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो विद्वान् (दधिक्राव्णः) धारण करनेवालों को क्रमण करानेवाले (अश्वस्य) बड़े और विद्या में अर्थात् पदार्थविद्या के गुणों में व्याप्त (उषसः) प्रातःकाल की (व्युष्टौ) अनेक प्रकार की सेवा में और (समिद्धे) बहुत प्रदीप्त (अग्नौ) बिजुलीरूप अग्नि में (अनागसम्) अपराधरहित को (अकारीत्) करता है (तम्) उसको (अदितिः) माता व पिता निरपराध (कृणोतु) करे (सः) सो भी (मित्रेण) मित्र (वरुणेन) श्रेष्ठ के साथ (सजोषाः) तुल्य प्रीति सेवनेवाला हो ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अग्नि में जल आदि पदार्थों के संयोग करने को जाने और जो सज्जनों के साथ मित्रता कर और प्रातःकाल उठ के श्रेष्ठ कर्मों को करता है, वही सदैव प्रसन्न होता है, यह जानो ॥३॥

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    विषय

    मित्रेण वरुणेना सजोषाः [सस्नेह व निर्दोष मन]

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (उषसः व्युष्टौ) = उष:काल के होते ही (अग्ना समिद्धे) = यज्ञाग्नि के दीप्त करने पर (अश्वस्य) = मार्गों का व्यापन करनेवाले [अश् व्याप्तौ] (दधिक्राव्णः) = इस हमारा धारण करके क्रमण करनेवाले मन की (अकरीत्) = स्तुति करता है, (तम्) = उसे (अदितिः) = यह विषयों से खण्डित न होनेवाला मन (अनागसं कृणोतु) = निष्पाप बनाए । मन अश्व है- शीघ्रता से देश - देशान्तर का व्यापन करनेवाला है। यह दधिक्रावा है- हमारा धारण करता हुआ जीवन-मार्ग में आगे बढ़ता है। हमें चाहिए कि हम उषा के होते ही यज्ञादि उत्तम कर्मों में इसे प्रवृत्त करें। यही इसका स्तवन है, यही इसे विषयों से बचाने का मार्ग है। यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहने पर यह 'अदिति' बनता है और हमें निष्पाप बनाता है। [२] (सः) = वह (मित्रेण) = मित्र से व (वरुणेन) = वरुण से (सजोषा:) = समानरूप से प्रीतिवाला होता है। मित्र व वरुण से संगत हुआ हुआ यह मन सदा स्नेहवाला [मित्र] व द्वेष की भावना से रहित [वरुण] होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मन को उषा के होते ही यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त करना चाहिए, तभी यह विषयों से न खण्डित हुआ-हुआ, सस्नेह व निर्देष बना रहता है और हमें निष्पाप जीवनवाला बनाता है।

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    विषय

    दधिक्रा गुरु ।

    भावार्थ

    (यः) जो पुरुष (अश्वस्य) विद्याओं में व्यापक, बलवान् (दधिक्राव्णः) व्रत धारण करने वालों को आगे के सत्पथ पर चलाने चाले परमेश्वर वा आचार्य की (अग्नौ समिद्धे) अग्नि के प्रज्वलित होने पर और (उषसः व्युष्टौ) उषा के समान जीवन के प्रभात, बाल्यकाल के खिलने के अवसर में (अकारीत्) सेवा और शुश्रूषा करता है (तम्) उसको (अदितिः) माता पिता व बन्धुवर्ग वा ब्रह्मचर्य का अखण्ड व्रती वा सूर्यवत् तेजस्वी विद्वान् (अनागसं) पापरहित (कृणोतु) करे और वह (मित्रेण) मित्र, स्नेही वर्ग और श्रेष्ठ पुरुषों के साथ (सजोषाः) प्रेमपूर्वक रहता है । (२) परमेश्वर पक्ष में—दधिक्रावा अदिति मित्र वरुण सब प्रभु के नाम हैं, अग्नि प्रज्वलित कर यज्ञ में और प्रभात वेला में उस व्यापक सबके धारक प्रभु की उपासना करता है, अखण्ड प्रभु उसको आपद्-रहित करता है वह परमेश्वर मित्र, और वरणीय रूप से प्रेम करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ दधिक्रा देवता॥ छन्दः- १, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, स्वराट् पंक्तिः। ६ अनुष्टुप॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो अग्नी, जल इत्यादी पदार्थांचा संयोग करणे जाणतो व जो सज्जनांबरोबर मैत्री करून प्रातःकाळी उठून श्रेष्ठ कर्म करतो तोच सदैव प्रसन्न असतो, हे जाणा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever does honour and worship to Dadhikra, mighty life sustaining energy of the Divine and offers oblations into the burning fire at the rise of dawn, him Aditi, mother earth and the skies and space, lead to a state of purity from sin and evil and elevate him to a state of love and friendship with Mitra and Varuna, friend and highest authority of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the people are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! may father and mother make that man sinless who is highly learned, well-versed in all sciences, lover of the upholders of good virtues, who gets up early in the morning before the manifestation of the dawn and enkindles fire. Let such a man love and serve without any discrimination a person,. who is friendly to all and is very noble.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    You should know that such a man alone can ever remain cheerful who knows how to combine water and other things with Agni (fire, electricity, energy etc,) and who having formed friendship with good men, gets up early in the morning and performs good deeds.

    Foot Notes

    (अश्वस्य) महतो व्याप्तविद्यस्य । अश्व इति महन्नाम महर्षि दयानन्द वृतम भाष्ये वहुलः प्रतीयते । स च पाठोऽन्वेष्टव्यः । = Of the great scholar proficient in many sciences. (अदितिः) माता-पिता वा । = Mother or father.

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