ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ए॒ष स्य भा॒नुरुदि॑यर्ति यु॒ज्यते॒ रथः॒ परि॑ज्मा दि॒वो अ॒स्य सान॑वि। पृ॒क्षासो॑ अस्मिन्मिथु॒ना अधि॒ त्रयो॒ दृति॑स्तु॒रीयो॒ मधु॑नो॒ वि र॑प्शते ॥१॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्यः । भा॒नुः । उत् । इ॒य॒र्ति॒ । यु॒ज्यते॑ । रथः॑ । परि॑ऽज्मा । दि॒वः । अ॒स्य । सान॑वि । पृ॒क्षासः॑ । अ॒स्मि॒न् । मि॒थु॒नाः । अधि॑ । त्रयः॑ । दृतिः॑ । तु॒रीयः॑ । मधु॑नः । वि । र॒प्श॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्य भानुरुदियर्ति युज्यते रथः परिज्मा दिवो अस्य सानवि। पृक्षासो अस्मिन्मिथुना अधि त्रयो दृतिस्तुरीयो मधुनो वि रप्शते ॥१॥
स्वर रहित पद पाठएषः। स्यः। भानुः। उत्। इयर्ति। युज्यते। रथः। परिऽज्मा। दिवः। अस्य। सानवि। पृक्षासः। अस्मिन्। मिथुनाः। अधि। त्रयः। दृतिः। तुरीयः। मधुनः। वि। रप्शते ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - द्वन्द्व त्रयी
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह (स्य:) = वह प्रसिद्ध [सुपरिचित्] (भानुः) = सूर्य (उदियर्ति) = उदय होता है और (रथ:) = हमारा यह शरीररथ (युज्यते) = इन्द्रियाश्वों से युक्त किया जाता है। (परिज्मा) = यह रथ चारों ओर गतिवाला होता है- 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' इन चतुर्विध पुरुषार्थों को सिद्ध करनेवाला होता है। (अस्य दिवः सानवि) = यह रथ हमें द्युलोक के शिखर पर पहुँचाता है। हम प्राणसाधना करते हुए ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं और ज्ञान के शिखर पर पहुँचने के लिए यत्नशील होते हैं । [२] (अस्मिन् अधि) = इस शरीर रथ में (त्रयः मिथुना:) = तीन द्वन्द्व (पृक्षास:) = सम्पर्कवाले होते हैं [पृची सम्पर्के] । सब से प्रथम द्वन्द्व 'ज्ञाने मौनं' ज्ञान व मौन का है। ज्ञानी होते हुए ये मौन रहते हैं ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करते फिरते। द्वितीय द्वन्द्व 'क्षमा शक्तौ' शक्ति व क्षमा का है। विरोधी को कुचलने में समर्थ होते हुए भी ये क्षमा की वृत्तिवाले होते हैं। तृतीय द्वन्द्व 'त्यागे श्लाघाविपर्ययः ' त्याग व निरहंकारता का है। त्यागी होते हुए उस त्याग के अहंकार से रहित होते हैं। प्रथम द्वन्द्व का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। दूसरे का सम्बन्ध भुजाओं से है और तीसरे का सम्बन्ध हृदय से है यह (तुरीय:) = चौथा (मधुनः दृतिः) = सोम का [वीर्यशक्ति का] आधारभूत चर्मपात्र के समान यह शरीर (विरप्शते) = विशेषरूप से प्रभु के नामों का उच्चारण करता है। शरीर में सोमरक्षण होने पर प्रभुस्तवन की वृत्ति उत्पन्न होती है-उस वृत्ति के प्रबल होने पर यह साधक प्रभु के नामों का जप करने लगता है ।
भावार्थ - भावार्थ- हमें सूर्योदय होते ही क्रियाशील जीवन को प्रारम्भ करना है। हमारा लक्ष्य है ज्ञान के शिखर पर पहुँचना। हम शरीर में 'ज्ञान- मौन' 'शक्ति-क्षमा' त्याग-अश्लाघा रूप तीन द्वन्द्वों को धारण करें। शरीर को सोम [वीर्य] का पात्र बनाते हुए प्रभु के नामों का जप करें।
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