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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्वां॑ पृ॒क्षासो॒ मधु॑मन्त ईरते॒ रथा॒ अश्वा॑स उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु। अ॒पो॒र्णु॒वन्त॒स्तम॒ आ परी॑वृतं॒ स्व१॒॑र्ण शु॒क्रं त॒न्वन्त॒ आ रजः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । वा॒म् । पृ॒क्षासः॑ । मधु॑ऽमन्तः । ई॒र॒ते॒ । रथाः॑ । अश्वा॑सः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टिषु । अ॒प॒ऽऊ॒र्णु॒वन्तः॑ । तन्मः॑ । आ । परि॑ऽवृतम् । स्वः॑ । न । शु॒क्रम् । त॒न्वन्तः॑ । आ । रजः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्वां पृक्षासो मधुमन्त ईरते रथा अश्वास उषसो व्युष्टिषु। अपोर्णुवन्तस्तम आ परीवृतं स्व१र्ण शुक्रं तन्वन्त आ रजः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। वाम्। पृक्षासः। मधुऽमन्तः। ईरते। रथाः। अश्वासः। उषसः। विऽउष्टिषु। अपऽऊर्णुवन्तः। तमः। आ। परिऽवृतम्। स्वः। न। शुक्रम्। तन्वन्तः। आ। रजः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे अश्विनौ ! प्राणापानो ! (वाम्) = आपके (पृक्षासः) = सम्पर्कवाले, अर्थात् प्राणसाधना से युक्त हुए हुए और अतएव (मधुमन्तः) = माधुर्यवाले (स्था:) = ये शरीर- रथ व (अश्वासः) = इन्द्रियाश्व (उषसः) = व्युष्टिषु उषाकालों के उदित होते ही (उदीरते) = उत्कृष्ट गतिवाले होते हैं। जिस समय हम प्राणायाम के अभ्यासी बनते हैं, उस समय शरीर व इन्द्रियाँ निर्दोष होकर जीवन को मधुर बनानेवाली होती हैं। [२] (आ परीवृतम्) = चारों ओर से घिरे हुए (तमः) = अज्ञानान्धकार को (अप ऊर्णुवन्तः) = दूर करते हुए ये रथ व (अश्व) = [शरीर व इन्द्रियाँ] (रजः) = हृदयान्तरिक्ष को (स्वः न) = सूर्य के समान (शुक्रम्) = दीप्त (आतन्वन्तः) = विस्तृत करते हैं। प्राणायाम द्वारा इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं 'प्राणायामैर्दहेद् दोषान्'। उस समय निर्मल हृदय ज्ञानदीप्ति से चमक उठता है 'योगाङ्गानुष्ठाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः'।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणायाम से शरीर व इन्द्रियाँ निर्दोष होकर जीवन को मधुर बनाती हैं और हृदय ज्ञानदीप्ति से चमक उठता है।

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