ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
वि॒हि होत्रा॒ अवी॑ता॒ विपो॒ न रायो॑ अ॒र्यः। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवि॒हि । होत्रा॑ । अवी॑ताः । विपः॑ । न । रायः॑ । अ॒र्यः । वायो॒ इति॑ । आ । च॒न्द्रेणे॑ । रथे॑न । या॒हि । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विहि होत्रा अवीता विपो न रायो अर्यः। वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥१॥
स्वर रहित पद पाठविहि। होत्राः। अवीताः। विपः। न। रायः। अर्यः। वायो इति। आ। चन्द्रेण। रथेन। याहि। सुतस्य। पीतये ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 48; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - 'अवीत होत्र' ऐश्वर्य
पदार्थ -
[१] (विपः न) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले एक पुरुष के समान (अर्य:) = अपना स्वामी होता हुआ तू (होत्रा:) = [होमसाधिकाः] यज्ञों को सिद्ध करनेवाले (अवीता:) = [Not gone away ] जिनका विलासों में व्यर्थ ही व्यय नहीं हुआ, ऐसे (राय:) = ऐश्वर्यों का (विहि) = उपभोग कर । तू धनों को प्राप्त कर । परन्तु काम आदि शत्रुओं को कम्पित करके-जितेन्द्रिय बनकर तू उन ऐश्वर्यों का यज्ञादि उत्तम कार्यों में ही व्यय कर । ये धन विलास में व्ययित न हों, अवीत बने रहें । [२] हे (वायो) = गतिशील पुरुष तू (चन्द्रेण रथेन) = मनः प्रसाद से युक्त इस शरीर-रथ से (आयाहि) = समन्तात् कर्त्तव्यकर्मों में प्रवृत्त हो, ताकि तू (सुतस्य पीतये) = इस उत्पन्न सोम का पान कर सके-सोम को शरीर में ही सुरक्षित रख सके।
भावार्थ - भावार्थ- हम उन ऐश्वर्यों को प्राप्त करें, जो कि यज्ञादि का साधन बनें- विलासों में व्ययित न हों। सदा प्रसन्नतापूर्वक कर्त्तव्यकर्मों में लगे हुए हम सोम का रक्षण करें।
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