ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 48/ मन्त्र 2
नि॒र्यु॒वा॒णो अश॑स्तीर्नि॒युत्वाँ॒ इन्द्र॑सारथिः। वाय॒वा च॒न्द्रेण॒ रथे॑न या॒हि सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठनिः॒ऽयु॒वा॒नः । अश॑स्तीः । नि॒युत्वा॑न् । इन्द्र॑ऽसारथिः । वायो॒ इति॑ । आ । च॒न्द्रेणे॑ । रथे॑न । या॒हि । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथिः। वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ॥२॥
स्वर रहित पद पाठनिःऽयुवानः। अशस्तीः। नियुत्वान्। इन्द्रऽसारथिः। वायो इति। आ। चन्द्रेण। रथेन। याहि। सुतस्य। पीतये ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 48; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
विषय - इन्द्रसारथि
पदार्थ -
[१] हे (वायो) = गतिशील पुरुष! तू (अशस्तीः) = सब अप्रशस्त बातों को (निर्युवाणः) = अपने से पृथक् करता हुआ, नियुत्वान्- प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला होता हुआ, (इन्द्रसारथिः) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को अपना सारथि बनाकर, इस (चन्द्रेण) = मनः प्रसादयुक्त (रथेन) = शरीर-रथ से (आयाहि) = कर्त्तव्यों में प्रवृत्त हो, ताकि (सुतस्य पीतये) = तू सोम को शरीर में ही सुरक्षित कर सके। [२] सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि, [क] हम निन्द्य बातों को अपने से दूर करें, [ख] इन्द्रियों को प्रशस्त बनाएँ, [ग] प्रभु को अपने रथ का सारथि बनाएँ। [घ] मनःप्रसाद के साथ सदा क्रिया में लगे रहें ।
भावार्थ - भावार्थ– अप्रशस्तता से दूर होकर और सदा क्रियाशील बनकर हम सोम का रक्षण करें।
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