ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
उ॒त सखा॑स्य॒श्विनो॑रु॒त मा॒ता गवा॑मसि। उ॒तोषो॒ वस्व॑ ईशिषे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । सखा॑ । अ॒सि॒ । अ॒श्विनोः॑ । उ॒त । मा॒ता । गवा॑म् । अ॒सि॒ । उ॒त । उ॒षः॒ । वस्वः॑ । ई॒शि॒षे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत सखास्यश्विनोरुत माता गवामसि। उतोषो वस्व ईशिषे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठउत। सखा। असि। अश्विनोः। उत। माता। गवाम्। असि। उत। उषः। वस्वः। ईशिषे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
विषय - 'प्राण, ज्ञान व वसु' प्रदा उषा
पदार्थ -
[१] हे (उषः) = उषा! तू (उत) = निश्चय से (अश्विनोः सखा असि) = प्राणापान की मित्र है । प्रातः प्रबुद्ध होकर हमें प्राणायाम द्वारा प्राणों को वश में करने का यत्न करना चाहिए। (उत) = और तू (गवाम्) = ज्ञानरश्मियों की (माता असि) = माता है। यह उषा प्राणसाधना द्वारा हमें ऊर्ध्वरेतस् बनाती है। यह रेतस् ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है। इस प्रकार स्वाध्याय से हमारी ज्ञानरश्मियाँ फैलती हैं । [२] (उत) = और हे उषः ! तू (वस्वः) = सब वसुओं के (ईशिषे) = ऐश्वर्यवाली है। शरीर में निवास के लिए जो भी आवश्यक तत्त्व हैं, उन्हें तू प्राप्त करानेवाली है।
भावार्थ - भावार्थ- उषा प्राणों को, ज्ञान को व वसुओं को प्राप्त कराती है।
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