ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
अश्वे॑व चि॒त्रारु॑षी मा॒ता गवा॑मृ॒ताव॑री। सखा॑भूद॒श्विनो॑रु॒षाः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअश्वा॑ऽइव । चि॒त्रा । अरु॑षी । मा॒ता । गवा॑म् । ऋ॒तऽव॑री । सखा॑ । अ॒भू॒त् । अ॒श्विनोः॑ । उ॒षाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वेव चित्रारुषी माता गवामृतावरी। सखाभूदश्विनोरुषाः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअश्वाऽइव। चित्रा। अरुषी। माता। गवाम्। ऋतऽवरी। सखा। अभूत्। अश्विनोः। उषाः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - 'अरुषी-ऋतावरी' उषा
पदार्थ -
[१] (अश्वा इव) = [अश् व्याप्तौ] जैसे यह उषा कर्मों में व्याप्त होनेवाली है, उसी प्रकार (चित्रा) = ज्ञान को देनेवाली है। (अरुषी) = आरोचमान है, (गवां माता) = प्रकाश की किरणों का निर्माण करनेवाली है, ऋतावरी यह ऋतवाली है- यज्ञोंवाली है। हमें प्रातः प्रबुद्ध होकर कर्त्तव्यकर्मों में लग जाना चाहिए। ज्ञानप्राप्ति के लिए यत्नशील होना चाहिए। हम इस उषा जागरण से अपने जीवन को आरोचमान तेजस्वी बनाएँ । स्वाध्याय द्वारा अपने ज्ञानप्रकाश को बढ़ाते हुए हम यज्ञशील हों। [२] प्रातः प्राणसाधना का उषाकाल (अश्विनो:) = प्राणापान का (सखा अभूत्) = मित्र होता है, अर्थात् इस उषाकाल में प्राणसाधना चलती है। प्रातः प्रबुद्ध होकर, स्नानादि शुद्धि करके, हम सूर्याभिमुख बैठकर प्रतिदिन प्राणापान का अभ्यास करें।
भावार्थ - भावार्थ- प्रातः प्रबुद्ध होकर अपने कर्त्तव्यकर्मों में हम लगें, स्वाध्याय करें और यज्ञ में प्रवृत्त हों। प्राणसाधना करें।
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