ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
प्रति॒ ष्या सू॒नरी॒ जनी॑ व्यु॒च्छन्ती॒ परि॒ स्वसुः॑। दि॒वो अ॑दर्शि दुहि॒ता ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । स्या । सू॒नरी॑ । जनी॑ । वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑ । परि॑ । स्वसुः॑ । दि॒वः । अ॒द॒र्शि॒ । दु॒हि॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति ष्या सूनरी जनी व्युच्छन्ती परि स्वसुः। दिवो अदर्शि दुहिता ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। स्या। सूनरी। जनी। विऽउच्छन्ती। परि। स्वसुः। दिवः। अदर्शि। दुहिता ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - 'सूनरी जनी' उषा
पदार्थ -
[१] (स्या) = वह (दिवः) = दुहिता प्रकाश का हमारे जीवनों में प्रपूरण करनेवाली उषा (प्रति अदर्शि) = प्रतिदिन उदय होती हुई दिखती है। उषा निकलती है, हमें प्रबुद्ध करके हमारे जीवनों को प्रकाश से भर देती है। [२] (सूनरी) = यह हमें उत्तमता से मार्ग पर आगे और आगे ले चलती है । जनी यह हमारे जीवनों में शक्तियों का विकास करती है और (स्वसुः परि) = स्वसृ [-बहिन] के स्थानापन्न रात्रि की समाप्ति पर (व्युच्छन्ती) = अन्धकार को दूर करती है। यह उषा हमारे जीवन के अन्धकार को भी इसी प्रकार दूर भगाती है। में गुणों व
भावार्थ - भावार्थ- उषा [क] हमें उत्तम मार्ग पर ले चलती है, [ख] हमारे जीवन शक्तियों का विकास करती है और [ग] प्रकाश का हमारे में प्रपूरण करनेवाली है।
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