ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
आ द्यां त॑नोषि र॒श्मिभि॒रान्तरि॑क्षमु॒रु प्रि॒यम्। उषः॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ ॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ । द्याम् । त॒नो॒षि॒ । र॒श्मिऽभिः॑ । आ । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒रु । प्रि॒यम् । उषः॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ द्यां तनोषि रश्मिभिरान्तरिक्षमुरु प्रियम्। उषः शुक्रेण शोचिषा ॥७॥
स्वर रहित पद पाठआ। द्याम्। तनोषि। रश्मिऽभिः। आ। अन्तरिक्षम्। उरु। प्रियम्। उषः। शुक्रेण। शोचिषा ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 7
विषय - 'द्यां अन्तरिक्षम्'
पदार्थ -
(१) (उष:) = हे उषे ! तू (द्याम्) = हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक को (रश्मिभिः) = ज्ञानरश्मियों से (आ तनोषि) = समन्तात् आतत [व्याप्त] करती है । [२] तथा (उरु) = विशाल (प्रियम्) = प्रीतियुक्त, प्रसादमय (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (शुक्रेण शोचिसा) = चमकती हुई पवित्रता से- शुचिता से आतत करता है।
भावार्थ - भावार्थ– उषाकाल का जागरण यदि हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्ञानरश्मियों से दीप्त करता है, तो हमारे तन को यह चमकती हुई पवित्रता से चमका देता है। उषाकाल की समाप्ति पर ज्ञान सूर्य का उदय होता है । सो अगला सूक्त सविता का है -
इस भाष्य को एडिट करें