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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 52/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - उषाः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ द्यां त॑नोषि र॒श्मिभि॒रान्तरि॑क्षमु॒रु प्रि॒यम्। उषः॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । द्याम् । त॒नो॒षि॒ । र॒श्मिऽभिः॑ । आ । अ॒न्तरि॑क्षम् । उ॒रु । प्रि॒यम् । उषः॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ द्यां तनोषि रश्मिभिरान्तरिक्षमुरु प्रियम्। उषः शुक्रेण शोचिषा ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। द्याम्। तनोषि। रश्मिऽभिः। आ। अन्तरिक्षम्। उरु। प्रियम्। उषः। शुक्रेण। शोचिषा ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 52; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे उषरिव वर्त्तमाने स्त्रि ! यथोषा रश्मिभिर्द्यामुर्वाऽन्तरिक्षञ्च प्रकाशयति तथैव त्वं शुक्रेण शोचिषा प्रियं पतिमातनोषि तस्मात् सत्कर्त्तव्यासि ॥७॥

    पदार्थः

    (आ) (द्याम्) प्रकाशम् (तनोषि) विस्तृणासि (रश्मिभिः) किरणैः (आ) सर्वतः (अन्तरिक्षम्) (उरु) बहु (प्रियम्) कमनीयं पतिम् (उषः) (शुक्रेण) शुद्धेन (शोचिषा) प्रकाशेन ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। सैव स्त्री बहुसुखं प्राप्नोति या विद्याविनयसुशीलादिभिः स्वपतिं सदैव प्रीणातीति ॥७॥ अत्रोषर्वत्स्त्रीगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥७॥ इति द्विपञ्चाशत्तमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (उषः) प्रभात वेला के सदृश वर्त्तमान स्त्री जैसे प्रभातवेला (रश्मिभिः) किरणों से (द्याम्) प्रकाश और (उरु) बहुत (आ, अन्तरिक्षम्) सब ओर से अन्तरिक्ष को प्रकाशित करती है, वैसे ही तू (शुक्रेण) शुद्ध (शोचिषा) प्रकाश से (प्रियम्) सुन्दर पति का (आ, तनोषि) विस्तार करती अर्थात् पति की कीर्त्ति बढ़ाती है, इससे सत्कार करने योग्य है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वही स्त्री बहुत सुख को प्राप्त होती है, जो विद्या, विनय और उत्तम स्वभावादिकों से अपने पति को नित्य प्रसन्न करती है ॥७॥ इस सूक्त में प्रभातवेला के सदृश स्त्रियों के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥७॥ यह बावन ५२ वाँ सूक्त और तृतीय वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    'द्यां अन्तरिक्षम्'

    पदार्थ

    (१) (उष:) = हे उषे ! तू (द्याम्) = हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक को (रश्मिभिः) = ज्ञानरश्मियों से (आ तनोषि) = समन्तात् आतत [व्याप्त] करती है । [२] तथा (उरु) = विशाल (प्रियम्) = प्रीतियुक्त, प्रसादमय (अन्तरिक्षम्) = हृदयान्तरिक्ष को (शुक्रेण शोचिसा) = चमकती हुई पवित्रता से- शुचिता से आतत करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– उषाकाल का जागरण यदि हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक को ज्ञानरश्मियों से दीप्त करता है, तो हमारे तन को यह चमकती हुई पवित्रता से चमका देता है। उषाकाल की समाप्ति पर ज्ञान सूर्य का उदय होता है । सो अगला सूक्त सविता का है -

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    विषय

    पक्षान्तर में—उषा, तीव्र ताप शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (उषा शुक्रेण शोचिषा रश्मिभिः द्याम् अन्तरिक्षम् उरु च आतनोति) प्रभात वेला शुद्ध कान्ति से और किरणों से प्रकाश को विशाल अन्तरिक्ष में फैलाती है उसी प्रकार हे (उषः) कमनीय स्त्री ! विदुषि ! तू भी (शुक्रेण) शुद्ध (शोचिषा) प्रकाश से और (रश्मिभिः) उत्तम किरणों वा प्रेम-बन्धनों से (द्याम्) अपने कमनीय और (अन्तरिक्षम्) अपने अन्तःकरण में बसे (उरु) बहुत अधिक (प्रियं) प्रिय पति को (आ तनोषि) आदरपूर्वक स्वीकार कर, उसमें व्याप । ‘उषा’ सूर्य की वह तीव्र तापयुक्त शक्ति है जो दाह या प्रचण्ड ताप उत्पन्न करती है। उसके दृष्टान्त से तेजस्वी राजा की प्रचण्ड शक्ति का वर्णन भी इस सूक्त में किया गया है । ताप शक्ति का वर्णन जैसे—(१) प्रकाश की उत्पादक, पूरक, प्रकाश किरणों से स्वतः उत्पन्न होने वाली होने से ‘दिवः दुहिता’ है । (२) अति घाम वा ताप के अनन्तर जल उत्पन्न होने से गतिमान जल रूप सर्गों की उत्पादक होने से (गवां माता) है । इसी से (ऋतावरी) जलोत्पादक वा अन्नोत्पादक भी है । (३) वही वसु, सूर्य की तीव्र शक्ति होने से स्वामिनी है । (४) नाना रोगहारक होने से ताप शक्ति ‘चिकित्वत्’ है । अप्रतिकारक, रोगकारी कीटाणुओं को नाश करने से ‘यवयद्-द्वेषस’ है । उसकी प्रतीति हमें (स्तोमैः) बहुत से किरणगणों से होती है । (५) वह ताप शक्ति (उरु-ज्रयः) बहुत अधिक जीर्णकारी रोगहर शोषक ताप को धारती है, उसके बाद ही सुखकारक वृष्टि जल उत्पन्न होते हैं । (६) वही पहले (तमः आपप्रुषी) तेज से काने बादलों को उत्पन्न कर (स्वधाम्) अन्न जल को उत्पन्न करती है । वह ताप शक्ति (शोचिषा) तेज़ से कौर (शुक्रेण) जल से और रश्मियों से आकाश, अन्तरिक्ष और भूतल को पूर्ण करती है। इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ उषा देवता॥ छन्द:- १, २, ३, ४, ६ निचृद्गायत्री । ५, ७ गायत्री ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तीच स्त्री खूप सुख प्राप्त करू शकते जी विद्या, विनय व उत्तम स्वभावाने आपल्या पतीला प्रसन्न करते. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O dawn, with your rays of light, you radiate and fill the wide heavens and the skies, and the regions of universal love, so do you bless your loved one with the purest light of love and bliss.$(Swami Dayananda interprets the dawn literally as well as metaphorically: The dawn is not only the light of the morning, daughter of the sun, but also the light of the home, blessed and beautiful lady of the house who fills the home with light and virtue and inspires her beloved husband with love and bliss.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of woman comparable with is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O noble woman! you shine like the dawn. As the dawn illuminates the heaven as well as the vast firmament with its pure rays (luster), in the same manner, you make your dear husband renowned and glorious by your pure luster.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That woman only enjoys much happiness who always satisfies her husband with knowledge, humility, good character and temperament and other virtuers.

    Foot Notes

    (शोचिषा) प्रकाशेन। = With light, luster. (प्रियम्) कमनीयं पतिम्। = To dear husband.

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