ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 53/ मन्त्र 7
आग॑न्दे॒व ऋ॒तुभि॒र्वर्ध॑तु॒ क्षयं॒ दधा॑तु नः सवि॒ता सु॑प्र॒जामिष॑म्। स नः॑ क्ष॒पाभि॒रह॑भिश्च जिन्वतु प्र॒जाव॑न्तं र॒यिम॒स्मे समि॑न्वतु ॥७॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒ग॒न् । दे॒वः । ऋ॒तुऽभिः॑ । वर्ध॑तु । क्षय॑म् । दधा॑तु । नः॒ । स॒वि॒ता । सु॒ऽप्र॒जाम् । इष॑म् । सः । नः॒ । क्ष॒पाभिः॑ । अह॑ऽभिः । च॒ । जि॒न्व॒तु॒ । प्र॒जाऽव॑न्तम् । र॒यिम् । अ॒स्मे इति॑ । सम् । इ॒न्व॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आगन्देव ऋतुभिर्वर्धतु क्षयं दधातु नः सविता सुप्रजामिषम्। स नः क्षपाभिरहभिश्च जिन्वतु प्रजावन्तं रयिमस्मे समिन्वतु ॥७॥
स्वर रहित पद पाठआ। अगन्। देवः। ऋतुऽभिः। वर्धतु। क्षयम्। दधातु। नः। सविता। सुऽप्रजाम्। इषम्। सः। नः। क्षपाभिः। अहऽभिः। च। जिन्वतु। प्रजाऽवन्तम्। रयिम्। अस्मे इति। सम्। इन्वतु ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 53; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 7
विषय - 'हमारे घरों को उत्तम बनानेवाले' प्रभु
पदार्थ -
[१] (देव: आगन्) = वे प्रकाशमय प्रभु हमें प्राप्त हों। (ऋतुभिः) = सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि ऋतुओं से (वर्धतु) = हमारा वर्धन करें। (नः) = हमारे (क्षयम्) = गृहों को (दधातु) = धारण करें। वे (सविता) = प्रेरक प्रभु (सुप्रजाम्) = उत्तम सन्तानों को व (इषम्) = उत्तम अन्नों को हमारे लिए प्राप्त कराएँ । प्रभु की उपासना में व प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलते हुए हम अपने घरों को उत्तम बना पाएँ । [२] (सः) = वे प्रभु (नः) = हमारे लिए (क्षपाभिः च अहभिः) = रात-दिन (जिन्वतु) = उत्तम धनों के देनेवाले हों। वे प्रभु (प्रजावन्तम्) = उत्तम प्रजाओं व सन्तानोंवाले (रयिम्) = धन को (अस्मे) = हमारे लिए (समिन्वतु) = सम्यक् व्याप्त कराएँ । [व्याप्नोतु प्रापयतु सा०]।
भावार्थ - भावार्थ- हमें प्रभु प्राप्त हों- हमारा निरन्तर वर्धन हो। हमारा घर उत्तम बने। हमें उत्तम सन्तान, अन्न व धन प्राप्त हों। जिस घर में प्रभु का उपासन होगा, वह अवश्य उत्तम बनेगा। अगले सूक्त में भी सविता का ही आराधन है -
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