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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 4
दे॒वं वो॑ देवय॒ज्यया॒ग्निमी॑ळीत॒ मर्त्यः॑। समि॑द्धः शुक्र दीदिह्यृ॒तस्य॒ योनि॒मास॑दः स॒सस्य॒ योनि॒मास॑दः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वम् । वः॒ । दे॒व॒ऽय॒ज्यया॑ । अ॒ग्निम् । ई॒ळी॒त॒ । मर्त्यः॑ । सम्ऽइ॑द्धः । शु॒क्र॒ । दी॒दि॒हि॒ । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । आ । अ॒स॒दः॒ । स॒सस्य॑ । योनि॑म् । आ । अ॒स॒दः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवं वो देवयज्ययाग्निमीळीत मर्त्यः। समिद्धः शुक्र दीदिह्यृतस्य योनिमासदः ससस्य योनिमासदः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठदेवम्। वः। देवऽयज्यया। अग्निम्। ईळीत। मर्त्यः। सम्ऽइद्धः। शुक्र। दीदिहि। ऋतस्य। योनिम्। आ। असदः। ससस्य। योनिम्। आ। असदः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
विषय - 'ऋतस्य - ससस्य' योनिमासदः
पदार्थ -
[१] (मर्त्यः) = मनुष्य (वः) = तुम सब के (देवम्) = प्रकाशक (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (देवयज्यया) = देवयज्ञ के द्वारा (ईडीत) = उपासित करे। यज्ञों के द्वारा ही प्रभु का उपासन होता है । [२] हे प्रभो ! (समिद्धः) = ज्ञान प्राप्ति के द्वारा हृदय में समिद्ध किये गये (शुक्र:) = दीप्तिमय आप (दीदिहि) = प्रकाशित होइये। मेरे हृदय में आपका प्रकाश हो । (ऋतस्य योनिम्) = ऋत के घर में (आसद:) = आप आसीन होइये। (ससस्य योनिम्) = वानस्पतिक भोजन का सेवन करनेवाले के घर में (आसद:) = आप आसीन होइये । प्रभु का निवास वहीं होता है जहाँ सब कार्य 'ऋत' पूर्वक हों तथा जहाँ क्रूरता व हिंसा से प्राप्य भोजनों का स्थान न हो।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु को हम यज्ञों द्वारा पूजित करते हैं। ऋत का पालन करते हुए, वानस्पतिक पदार्थों का सेवन करते हुए हम प्रभु को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार 'ऋत का उपासक' 'वानस्पतिक अन्नों का सेवक' यह पुरुष 'विश्वसामा' [विश्व सामयस्य] अत्यन्त शान्त स्वभाव का बनता है। आत्रेय तो होता ही है। यह प्रभु की आराधना इस प्रकार करता है -
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