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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
अग्ने॑ चिकि॒द्ध्य१॒॑स्य न॑ इ॒दं वचः॑ सहस्य। तं त्वा॑ सुशिप्र दम्पते॒ स्तोमै॑र्वर्ध॒न्त्यत्र॑यो गी॒र्भिः शु॑म्भ॒न्त्यत्र॑यः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । चि॒कि॒द्धि । अ॒स्य । नः॒ । इ॒दम् । वचः॑ । स॒ह॒स्य॒ । तम् । त्वा॒ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । द॒म्ऽप॒ते॒ । स्तोमैः॑ । व॒र्ध॒न्ति॒ । अत्र॑यः । गीः॒ऽभिः । शु॒म्भ॒न्ति॒ । अत्र॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने चिकिद्ध्य१स्य न इदं वचः सहस्य। तं त्वा सुशिप्र दम्पते स्तोमैर्वर्धन्त्यत्रयो गीर्भिः शुम्भन्त्यत्रयः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। चिकिद्धि। अस्य। नः। इदम्। वचः। सहस्य। तम्। त्वा। सुऽशिप्र। दम्ऽपते। स्तोमैः। वर्धन्ति। अत्रयः। गीःऽभिः। शुम्भन्ति। अत्रयः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
विषय - स्तोमैः-गीर्भिः
पदार्थ -
[१] हे (सहस्य) = सहसः सूनो ! बल के पुत्र, बल के पुञ्ज, (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (नः) = हमारे (इदम्) = इस (वचः) = स्तुति वचन को आप (चिकिद्धि) = जानिये । हमारा यह स्तुतिवचन आपके लिये प्रिय हो । [२] हे (सुशिप्र) = शोभन हनु वा नासिकावाले! (दम्पते) = गृहपते प्रभो ! (तं त्वा) = उन आपको (अत्रयः) = काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाले व्यक्ति (स्तोमैः) = स्तुतियों से (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं । ये (अत्रयः) = अत्रि (गीर्भि:) = ज्ञान की वाणियों से (शुम्भन्ति) = अपने हृदयों में आपको अलंकृत करते हैं। प्रभु को 'सुशिप्र' करने का भाव यह है कि प्रभु स्मरण से हम उत्तम हनु व नासिकावाले बनते हैं। 'शोभने हनू नासिके वा यस्मात्' । प्रभु स्मरण हमें अति भोजन की वृत्ति से दूर करके, असात्त्विक भोजनों से दूर करके, उत्तम जबड़ोंवाला बनाता है तथा प्राणायाम में प्रवृत्त करता है। इस प्रकार प्रभु-स्मरण हमें 'सुशिप्र' बनाता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम स्तुतियों व ज्ञानवाणियों से प्रभु का अपने में धारण करें। इससे हम 'मितभोजीप्राणायाम के अभ्यासी व शरीर गृह के रक्षक' बनेंगे। गतमन्त्र के अनुसार जीवन के होने पर हम ज्ञानज्योतिवाले 'द्युम्न' होंगे, तत्त्वद्रष्टा 'विश्वचर्षणि ' बनेंगे। यह द्युम्न विश्वचर्षणि प्रभु की आराधना करता हुआ कहता है -
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