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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वसामा आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    अग्ने॑ चिकि॒द्ध्य१॒॑स्य न॑ इ॒दं वचः॑ सहस्य। तं त्वा॑ सुशिप्र दम्पते॒ स्तोमै॑र्वर्ध॒न्त्यत्र॑यो गी॒र्भिः शु॑म्भ॒न्त्यत्र॑यः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । चि॒कि॒द्धि । अ॒स्य । नः॒ । इ॒दम् । वचः॑ । स॒ह॒स्य॒ । तम् । त्वा॒ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । द॒म्ऽप॒ते॒ । स्तोमैः॑ । व॒र्ध॒न्ति॒ । अत्र॑यः । गीः॒ऽभिः । शु॒म्भ॒न्ति॒ । अत्र॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने चिकिद्ध्य१स्य न इदं वचः सहस्य। तं त्वा सुशिप्र दम्पते स्तोमैर्वर्धन्त्यत्रयो गीर्भिः शुम्भन्त्यत्रयः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। चिकिद्धि। अस्य। नः। इदम्। वचः। सहस्य। तम्। त्वा। सुऽशिप्र। दम्ऽपते। स्तोमैः। वर्धन्ति। अत्रयः। गीःऽभिः। शुम्भन्ति। अत्रयः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे सहस्य सुशिप्र दम्पतेऽग्ने ! त्वं यथाऽत्रयः स्तोमैर्वर्धन्ति यथाऽत्रयो गीर्भिः शुम्भन्ति तथा न इदं वचोऽस्य च चिकिद्धि तं त्वा वयं सत्कुर्य्याम ॥४॥

    पदार्थः

    (अग्ने) विद्वन् (चिकिद्धि) विजानीहि (अस्य) (नः) अस्माकम् (इदम्) (वचः) (सहस्य) सहसि बले साधो (तम्) (त्वा) त्वाम् (सुशिप्र) शोभनहनुनासिक (दम्पते) स्त्रीपुरुष (स्तोमैः) प्रशंसितैर्व्यवहारैः वाग्भिः (वर्धन्ति) (अत्रयः) अविद्यमानत्रिविधदुःखा (गीर्भिः) (शुम्भन्ति) पवित्रयन्ति (अत्रयः) त्रिभिः कामक्रोधलोभदोषै रहिताः ॥४॥

    भावार्थः

    यथा पुरुषार्थिनो मनुष्या सर्वान् वर्धयन्त्युपदेशकाः सर्वान् पवित्रयन्ति तथैव सर्वे मनुष्या आचरन्त्विति ॥४॥ अत्राग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वाविंशतितमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (सहस्य) बल में श्रेष्ठ (सुशिप्र) सुन्दर ठुड्डी और नासिकावाले (दम्पते) स्त्री और पुरुष (अग्ने) विद्वन् ! आप जैसे (अत्रयः) तीन प्रकार के दुःखों से रहित जन (स्तोमैः) प्रशंसित व्यवहारों से (वर्धन्ति) वृद्धि को प्राप्त होते हैं और जैसे (अत्रयः) काम, क्रोध, और लोभ इन तीन दोषों से रहित जन (गीर्भिः) वाणियों से (शुम्भन्ति) पवित्र करते हैं, वैसे (नः) हम लोगों के (इदम्) इस (वचः) वचन को और (अस्य) इसके वचन को (चिकिद्धि) जानिये (तम्) उन (त्वा) आपका हम लोग सत्कार करें ॥४॥

    भावार्थ

    जैसे पुरुषार्थी मनुष्य सबकी वृद्धि करते हैं और उपदेशक जन सब जनों को पवित्र करते हैं, वैसे ही सब मनुष्य आचरण करें ॥४॥ इस सूक्त में अग्नि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बाईसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अग्रणी पुरुष का आदर सत्कार ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( सहस्य ) शत्रुपराजयकारी सैन्य बल के बीच में सुयोग्य सेनापते ! (अग्ने) अग्निवत् प्रतापिन् ! अग्रणी नायक ! तू (अस्य चिकिद्धि ) इस राष्ट्र के सम्बन्ध में उत्तम रीति से जान और (नः) हमारे (इदं वचः चिकिद्धि) इस राष्ट्र के सम्बन्ध में उत्तम रीति से जान । हे ( सुशिप्र ) उत्तम मुखनासिका वाले, हे सौम्य ! हे (दम्पते) स्त्री के पति के तुल्य पृथ्वी की प्रजा के स्वामिन्! (अत्रयः ) यहां, इस राष्ट्र के निवासी विद्वान् जन ( तं त्वां ) उस प्रसिद्ध तुझको ( स्तोमैः) उत्तम स्तुत्य वचनों से (वर्धन्ति ) बढ़ाते हैं और ( अत्रयः ) तीनों तापों तथा काम, क्रोध, लोभ तीनों से रहित लोग (त्वा ) तुझे ( गीर्भिः ) वाणियों से (शुम्भन्ति) सुशोभित करते हैं । इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आत्रेय ऋषिः । अग्निर्देवता । १ विराडनुष्टुप छन्दः २, ३ स्वराडुष्णिक् । ४ बृहती || चतुऋचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्तोमैः-गीर्भिः

    पदार्थ

    [१] हे (सहस्य) = सहसः सूनो ! बल के पुत्र, बल के पुञ्ज, (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (नः) = हमारे (इदम्) = इस (वचः) = स्तुति वचन को आप (चिकिद्धि) = जानिये । हमारा यह स्तुतिवचन आपके लिये प्रिय हो । [२] हे (सुशिप्र) = शोभन हनु वा नासिकावाले! (दम्पते) = गृहपते प्रभो ! (तं त्वा) = उन आपको (अत्रयः) = काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठनेवाले व्यक्ति (स्तोमैः) = स्तुतियों से (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं । ये (अत्रयः) = अत्रि (गीर्भि:) = ज्ञान की वाणियों से (शुम्भन्ति) = अपने हृदयों में आपको अलंकृत करते हैं। प्रभु को 'सुशिप्र' करने का भाव यह है कि प्रभु स्मरण से हम उत्तम हनु व नासिकावाले बनते हैं। 'शोभने हनू नासिके वा यस्मात्' । प्रभु स्मरण हमें अति भोजन की वृत्ति से दूर करके, असात्त्विक भोजनों से दूर करके, उत्तम जबड़ोंवाला बनाता है तथा प्राणायाम में प्रवृत्त करता है। इस प्रकार प्रभु-स्मरण हमें 'सुशिप्र' बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तुतियों व ज्ञानवाणियों से प्रभु का अपने में धारण करें। इससे हम 'मितभोजीप्राणायाम के अभ्यासी व शरीर गृह के रक्षक' बनेंगे। गतमन्त्र के अनुसार जीवन के होने पर हम ज्ञानज्योतिवाले 'द्युम्न' होंगे, तत्त्वद्रष्टा 'विश्वचर्षणि ' बनेंगे। यह द्युम्न विश्वचर्षणि प्रभु की आराधना करता हुआ कहता है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी पुरुषार्थी माणसे सर्वांचे वर्धन करतात व उपदेशक सर्वांना पवित्र करतात तसे माणसांनी आचरण करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, giver of strength and courage, listen to this word of our prayer for light, protection and advancement. O lord of gracious visor and presiding power of the home and family, celebrants free from three kinds of suffering, of body, mind and soul, exalt you with songs of celebration, supplicants free from three kinds of passion, hate, anger and greed, adore you with words of worship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The Agni is further mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O powerful and learned husband and wife you have handsome chin and nose. The persons free from three kinds of misery-physical and mental, social and cosmic-grow harmoniously because of admirable dealings and men free from lust, anger and greed purify all by their noble speeches. Therefore, know well this our utterance and of the devotee. We revere you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The industrious persons make all grow and preachers purify all. All men should also act like that.

    Translator's Notes

    The second interpretation given by Maharshi Dayananda Sarasvati reminds the verse in the Bhagavad Gita त्रिविधं नरकस्येदं, नाशनमात्मनः । कामः क्रोधस्तथा लोभ:, तस्मादेतत् त्रय त्यजेत् । (गीता अ. १६) | It is wrong on the part of Prof Wilson and Griffith to take the word अत्रय:- twice, used in this mantra and else where, as the sons of the Atri-a particular sage. It is against the fundamental principles of the Vedic Termology.

    Foot Notes

    (सुशिप्र ) शोभनाहनुनासिक | = Having handsome chin and nose. (अत्रय:) अविद्यमान त्रिविधदुःखाः । = Free from three kinds of misery आध्यात्मिक (physical & mental) अधिभौतिक (Social) आधिदैविक(Cosmic)। (अत्रयः) त्रिभि: काम क्रोध लोभ दोषै: रहिताः । = Free from the three evils of lust, anger and greed.

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