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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विश्वावारात्रेयी देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्र्य॑र्य॒मा मनु॑षो दे॒वता॑ता॒ त्री रो॑च॒ना दि॒व्या धा॑रयन्त। अर्च॑न्ति त्वा म॒रुतः॑ पू॒तद॑क्षा॒स्त्वमे॑षा॒मृषि॑रिन्द्रासि॒ धीरः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्री । अ॒र्य॒मा । मनु॑षः । दे॒वऽता॑ता । त्री । रो॒च॒ना । दि॒व्या । धा॒र॒य॒न्त॒ । अर्च॑न्ति । त्वा॒ । म॒रुतः॑ । पू॒तऽद॑क्षाः । त्वम् । ए॒षा॒म् । ऋषिः॑ । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । धीरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्र्यर्यमा मनुषो देवताता त्री रोचना दिव्या धारयन्त। अर्चन्ति त्वा मरुतः पूतदक्षास्त्वमेषामृषिरिन्द्रासि धीरः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्री। अर्यमा। मनुषः। देवऽताता। त्री। रोचना। दिव्या। धारयन्त। अर्चन्ति। त्वा। मरुतः। पूतऽदक्षाः। त्वम्। एषाम्। ऋषिः। इन्द्र। असि। धीरः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (मनुषः) = विचारशील पुरुष (देवताता) = यज्ञों में जीवन को यज्ञों में चलाते हुए - (त्री अर्यमा) = तीन [अरीन् यच्छति नि० ११.२३] शत्रुओं के नियमनों को तथा (त्री दिव्या रोचना) = तीन दिव्य दीप्तियों को (धारयन्त) = धारण करते हैं। 'काम' के नियमन के द्वारा शरीर की तेजस्विता को, 'क्रोध' के नियमन के द्वारा मानस आह्लाद को, तथा 'लोभ' के नियमन के द्वारा ज्ञान की प्रचण्ड दीप्ति को ये धारण करनेवाले होते हैं । २. हे प्रभो ! (त्वा) = आपको (मरुतः) = मितरावी [कम बोलनेवाले] व प्राणसाधना करनेवाले [मरुतः प्राणा:] (पूतदक्षा:) = पवित्र बलवाले व्यक्ति ही (अर्चन्ति) = पूजते हैं। प्रभु का उपासक [क] कम बोलता है [ख] प्राणायाम का अभ्यासी होता है [३] अपने बल को वासनाओं से मलिन नहीं होने देता। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (एषाम्) = इनके (ऋषिः) = मन्त्रद्रष्टृत्व को देनेवाले हैं तथा (धीर:) = [धियम् ईरयति] बुद्धियों को प्रेरित करनेवाले हैं। ये उपासक प्रभु कृपा से ही 'ऋषि व धीर' बनते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ– 'काम, क्रोध, लोभ' को जीतकर हम 'शरीर, मन व मस्तिष्क' की दीप्ति को धारण करें। प्राणसाधना द्वारा पवित्र बलवाले होकर प्रभु के उपासक बनें। प्रभु हमें धीर व ऋषि बनाएँगे ।

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