ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
आ या॒ह्यद्रि॑भिः सु॒तं सोमं॑ सोमपते पिब। वृष॑न्निन्द्र॒ वृष॑भिर्वृत्रहन्तम ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । या॒हि॒ । अद्रि॑ऽभिः । सु॒तम् । सोम॑म् । सो॒म॒ऽप॒ते॒ । पि॒ब॒ । वृष॑न् । इ॒न्द्र॒ । वृष॑ऽभिः । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब। वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। याहि। अद्रिऽभिः। सुतम्। सोमम्। सोमऽपते। पिब। वृषन्। इन्द्र। वृषऽभिः। वृत्रहन्ऽतम ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - 'सोमपति' प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब आसुरवृत्तियों का संहार करनेवाले प्रभो! (आयाहि) = आप हमें प्राप्त होइये । हे (सोमपते) = सोम का [वीर्यशक्ति का] रक्षण करनेवाले प्रभो ! (अद्रिभिः) = उपासकों द्वारा (सुतं सोमम्) = शरीर में उत्पन्न किये गये सोम को (पिब) = आप हमारे शरीर में ही व्याप्त करिये। आप हमारे हृदयों में स्थित होंगे, तो वहाँ वासनाओं का प्रवेश न होना और वासनाओं के अभाव में ही सोमरक्षण का सम्भव होता है। [२] हे (वृषन्) = हमारे अन्दर सोम का सेचन करनेवाले, वृत्रहन्तम सोमरक्षण के लिये ही वासनाओं को सर्वाधिक विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप (वृषभिः) = इन सोमों के हेतु से ही हमें प्राप्त होइये [वृषा= सोम] । आपने ही हमारे जीवन में सोम का रक्षण करना है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। प्रभु हमें प्राप्त होंगे और वासना विनाश के द्वारा हमारे सोम का रक्षण करेंगे।
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