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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    आ या॒ह्यद्रि॑भिः सु॒तं सोमं॑ सोमपते पिब। वृष॑न्निन्द्र॒ वृष॑भिर्वृत्रहन्तम ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । या॒हि॒ । अद्रि॑ऽभिः । सु॒तम् । सोम॑म् । सो॒म॒ऽप॒ते॒ । पि॒ब॒ । वृष॑न् । इ॒न्द्र॒ । वृष॑ऽभिः । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ याह्यद्रिभिः सुतं सोमं सोमपते पिब। वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। याहि। अद्रिऽभिः। सुतम्। सोमम्। सोमऽपते। पिब। वृषन्। इन्द्र। वृषऽभिः। वृत्रहन्ऽतम ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे सोमपते वृषन् वृत्रहन्तमेन्द्र ! वृषभिस्सहितस्त्वमद्रिभिः सुतं सोमं पिब सङ्ग्राममा याहि ॥१॥

    पदार्थः

    (आ) (याहि) आगच्छ (अद्रिभिः) मेघैः (सुतम्) निष्पन्नम् (सोमम्) सोमलतादिरसम् (सोमपते) ऐश्वर्य्यपालक (पिब) (वृषन्) वृष इवाचरन् (इन्द्र) ऐश्वर्य्यमिच्छुक (वृषभिः) बलिष्ठैस्सह (वृत्रहन्तम) यो वृत्रं धनं हन्ति प्राप्नोति सोऽतिशयितस्तत्सम्बुद्धौ ॥१॥

    भावार्थः

    य ऐश्वर्यमिच्छेयुस्तेऽवश्यं बलबुद्धिं वर्धयेयुः ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    अब नव ऋचावाले चालीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र के गुणों को कहते हैं ॥१॥

    पदार्थ

    हे (सोमपते) ऐश्वर्य्य के स्वामिन् ! (वृषन्) बैल के सदृश आचरण करते हुए (वृत्रहन्तम) अत्यन्त धन को प्राप्त होने और (इन्द्र) ऐश्वर्य की इच्छा करनेवाले जन ! (वृषभिः) बलिष्ठों के साथ आप (अद्रिभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) सोमलता आदि ओषधियों के रस को (पिब) पान करिये और सङ्ग्राम को (आ, याहि) प्राप्त हूजिये ॥१॥

    भावार्थ

    जो ऐश्वर्य्य की इच्छा करें, वे अवश्य बल और बुद्धि की वृद्धि करें ॥१॥

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात इंद्र, मेघ, सूर्य, विद्वान, अविद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे ऐश्वर्याची इच्छा करतात ते निश्चित बल व बुद्धीची वृद्धी करतात. ॥ १ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, creator and protector of honour, excellence and prosperity, come with the clouds of rain showers, and taste and promote the distilled soma of the herbs of the earth. Come, generous lord, greatest dispeller of darkness and suffering, with the strongest and most enlightened, commanding the creation of glory.

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