ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
ऋ॒जी॒षी व॒ज्री वृ॑ष॒भस्तु॑रा॒षाट्छु॒ष्मी राजा॑ वृत्र॒हा सो॑म॒पावा॑। यु॒क्त्वा हरि॑भ्या॒मुप॑ यासद॒र्वाङ्माध्यं॑दिने॒ सव॑ने मत्स॒दिन्द्रः॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒जी॒षी । व॒ज्री । वृ॒ष॒भः । तु॒रा॒षाट् । शु॒ष्मी । राजा॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । स॒म॒ऽपावा॑ । यु॒क्त्वा । हरि॑ऽभ्याम् । उप॑ । या॒स॒त् । अ॒र्वाङ् । माध्य॑न्दिने । सव॑ने । म॒त्स॒त् । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋजीषी वज्री वृषभस्तुराषाट्छुष्मी राजा वृत्रहा सोमपावा। युक्त्वा हरिभ्यामुप यासदर्वाङ्माध्यंदिने सवने मत्सदिन्द्रः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठऋजीषी। वज्री। वृषभः। तुराषाट्। शुष्मी। राजा। वृत्रऽहा। सोमऽपावा। युक्त्वा। हरिऽभ्याम्। उप। यासत्। अर्वाङ्। माध्यंदिने। सवने। मत्सत्। इन्द्रः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! य ऋजीषी वज्री वृषभः शुष्मी तुराषाट् सोमपावा वृत्रहेन्द्रो राजा हरिभ्यां यानं युक्त्वाऽर्वाङुप यासन्माध्यन्दिने सवने मत्सत्तमेवाऽधिष्ठातारं कुर्वन्तु ॥४॥
पदार्थः
(ऋजीषी) सरलादियुक्तः (वज्री) शस्त्रास्त्राभृत् (वृषभः) बलिष्ठः (तुराषाट्) तुरान् हिंसकान् शत्रून् सहते (शुष्मी) शुष्मं बलिष्ठं सैन्यं विद्यते यस्य सः (राजा) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमानः (वृत्रहा) दुष्टशत्रुहन्ता (सोमपावा) श्रेष्ठौषधिरसस्य पाता (युक्त्वा) (हरिभ्याम्) अश्वाभ्याम् (उप) (यासत्) उपागच्छेत् (अर्वाङ्) पश्चात् (माध्यन्दिने) मध्याह्ने (सवने) भोजनसमये (मत्सत्) आनन्देत् (इन्द्रः) परमैश्वर्य्यकर्त्ता ॥४॥
भावार्थः
स एव राजा प्रशस्तः स्याद्यो राज्याङ्गानि विद्याश्च गृहीत्वा प्रजापालनाय प्रयतेत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (ऋजीषी) सरल आदि से युक्त (वज्री) शस्त्र और अस्त्रों का धारण करनेवाला (वृषभः) बलिष्ठ (शुष्मी) बलिष्ठ सेना से युक्त (तुराषाट्) हिंसा करनेवाले शत्रुओं को सहने (सोमपावा) श्रेष्ठ ओषधियों के रस को पीने (वृत्रहा) दुष्ट शत्रुओं के नाश करने और (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य का करनेवाला (राजा) विद्या और विनय से प्रकाशमान (हरिभ्याम्) घोड़ों से वाहन को (युक्त्वा) युक्त करके (अर्वाङ्) पीछे (उप, यासत्) समीप प्राप्त होवे और (माध्यन्दिने) मध्याह्न में (सवने) भोजन के समय (मत्सत्) आनन्दित होवे, उसी को अधिष्ठाता करो ॥४॥
भावार्थ
वही राजा प्रशंसित होवे, जो राज्य के अङ्गों और विद्याओं को ग्रहण करके प्रजापालन के लिये प्रयत्न करे ॥४॥
विषय
missing
भावार्थ
भा०- ( ऋजीषी) धर्म मार्ग में सदा स्वयं रहने की इच्छा करने और औरों को चलाने हारा, ( वज्री ) शत्रुवारक सैन्यबल का स्वामी, ( वृषभः ) मेघवत् सुखों की वर्षा करने वाला, बलवान्, हृष्ट पुष्ट, (तुराषाट्) वेग से आने वाले, हिंसक शत्रुओं को पराजित करने वाला (वृत्रहा) बढ़ते और काटते, छेदते दुष्ट पुरुषों वा शत्रुओं को दण्ड देने हारा, (सोमपावा ) ऐश्वर्यों का पालक और उनका ओषधि, अन्न आदिवत् उपभोक्ताः ( इन्द्रः ) सूर्यवत्, शत्रुहन्ता, तेजस्वी (राजा) राजा ( शुप्मी ) बड़े भारी बल का स्वामी होकर, ( युक्त्वा ) समाहित, एकाग्र चित्त होकर वा अपने अधीन भृत्यों को रथ में अश्वों के समान नियुक्त कर । ( हरिभ्याम् ) अश्वों सहित वा दो उत्तम पुरुषों से सहायवान् होकर ( अर्वाङ् उप यासत् ) सन्मुख आवे | और ( माध्यन्दिने सवने ) दिन के मध्यकाल दोपहर में तपते सूर्य के समान अति प्रतापयुक्त दशा में अभिषेक हो जाने पर वह ( मत्सत् ) खूब प्रसन्न हो और औरों को भी हर्षित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ १–४ इन्द्रः । ५ सूर्यः । ६-९ अत्रिर्देवता ॥ छन्दः— १ निचृदुष्णिक् । २, ३ उष्णिक् । ९ स्वराडुष्णिक् । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥
विषय
[१] (ऋजीषी) = [ऋजु - इष] सदा सरल मार्ग से चलनेवाला, (वज्री) = क्रियाशीलतारूप वज्रवाला, अर्थात् कभी अकर्मण्य न होनेवाला, अतएव (वृषभः) = शक्तिशाली, (तुराषाट्) = त्वरा से शत्रुओं का पराभव करनेवाला, (शुष्मी) = शत्रुशोषक बलवाला, (राजा) = जीवन को दीप्त बनानेवाला, (वृत्रहा) = वासना का विनाशक, (सोमपावा) = सोम [वीर्य] का रक्षण करनेवाला यह पुरुष (हरिभ्याम्) = इन्द्रियाश्वों से (युक्त्वा) = शरीर रथ को जोतकर (अर्वाङ् उपयासत्) = अन्तर्मुख यात्रावाला प्रभु के समीप प्राप्त हो । [२] माध्यन्दिने सवने-जीवन-यात्रा के इस माध्यन्दिन सवन में, गृहस्थाश्रम के काल में, इस प्रकार सोमपावा बनकर (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (मत्सत्) = आनन्द का अनुभव करे। ब्रह्मचर्याश्रम 'जीवन का प्रातः सवन' है। गृहस्थ 'माध्यन्दिन' तथा वानप्रस्थ- संन्यास 'तृतीय सवन' हैं। माध्यन्दिन सवन में भी सोमरक्षण करता हुआ पुरुष जीवन के वास्तविक आनन्द का अनुभव करे।
पदार्थ
भावार्थ- हम ऋजुमार्ग से चलते हुए, सोमरक्षण के द्वारा जीवन के वास्तविक आनन्द को प्राप्त करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो राज्याच्या सर्व अंगांना व विद्यांना ग्रहण करून प्रजापालनाचा प्रयत्न करतो तोच राजा प्रशंसनीय असतो. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Dynamic guardian of the path of rectitude to the last, wielder of thunder, generously brave, breaker of tempestuous missiles instantly, terribly forceful, refulgent ruler and sovereign commander, destroyer of the darkest enemies and protector of peaceful prosperity and joy of the people, Indra comes post haste by fastest horses, and at the noon day session of yajna joins the celebrations of the nation’s honour and excellence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of Agni (king) are further elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should accept him your ruler who is a man of upright nature, wielder of powerful weapon and missiles, very powerful, and possessor of the most mighty army. He overcomes violent foes, drinks the juice of soma and good herbs, destroys the wicked foes, who, having harnessed his two horses comes to us, and then after the midday meals let him bliss-be the maker of prosperity. He shines with knowledge and humility.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king only is good and admirable who, having acquired the knowledge of various sciences, and having organized the various wings of the army always tries to protect the people.
Foot Notes
(ऋजीषी) सरलादियुक्तः । = Endowed with uprightness and other virtues. (तुराषाट्) तुरान् हिसकान् शत्रून्सहते । तुर्वी-हिंसायाम् (भ्वा० )| = He who overcomes the violent foes. (राजा) विद्याविनयाभ्यां राजमानः । राजु दीप्तौ (भ्वा० )। = Shing with knowledge and humility,
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