Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 40 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अत्रिः देवता - अत्रिः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ग्राव्णो॑ ब्र॒ह्मा यु॑युजा॒नः स॑प॒र्यन् की॒रिणा॑ दे॒वान्नम॑सोप॒शिक्ष॑न्। अत्रिः॒ सूर्य॑स्य दि॒वि चक्षु॒राधा॒त्स्व॑र्भानो॒रप॑ मा॒या अ॑घुक्षत् ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्राव्णः॑ । ब्र॒ह्मा । यु॒यु॒जा॒नः । स॒प॒र्यन् । की॒रिणा॑ । दे॒वान् । नम॑सा । उ॒प॒ऽशिक्ष॑न् । अत्रिः॑ । सूर्य॑स्य । दि॒वि । चक्षुः॑ । आ । अ॒धा॒त् । स्वः॑ऽभानोः । अप॑ । मा॒याः । अ॒घु॒क्ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्राव्णो ब्रह्मा युयुजानः सपर्यन् कीरिणा देवान्नमसोपशिक्षन्। अत्रिः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात्स्वर्भानोरप माया अघुक्षत् ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्राव्णः। ब्रह्मा। युयुजानः। सपर्यन्। कीरिणा। देवान्। नमसा। उपऽशिक्षन्। अत्रिः। सूर्यस्य। दिवि। चक्षुः। आ। अधात्। स्वःऽभानोः। अप। मायाः। अघुक्षत् ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो ब्रह्मा कीरिणा युयुजानो नमसा देवान् सपर्यन् विद्यार्थिन उपशिक्षन्नत्रिः सन् स्वर्भानोर्ग्राव्णः सूर्यस्य दिवि चक्षुराधात् स मायाः प्राप्नुयादविद्या अपाघुक्षत् ॥८॥

    पदार्थः

    (ग्राव्णः) मेघात् (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (युयुजानः) (सपर्यन्) सेवमानः (कीरिणा) सकलविद्यास्तावकेन। कीरिरिति स्तोतृनामसु पठितम्। (निघं०३.१६) (देवान्) विदुषः (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (उपशिक्षन्) उपगतां विद्यां ग्राहयन् (अत्रिः) सकलविद्याव्यापकः (सूर्यस्य) (दिवि) प्रकाशे (चक्षुः) (आ, अधात्) आदध्यात् (स्वर्भानोः) स्वरादित्यस्य भानुर्दीप्तिर्यस्य तस्य (अप) (मायाः) प्रज्ञाः (अघुक्षत्) अपशब्दयेत् ॥८॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो विद्वत्सेवी योगी विद्याप्रचारप्रियो विद्वान् भवेत्स यथा विद्युत्सूर्यमेघसम्बन्धेन सृष्टेः पालनं दुःखनिवारणं च भवति तथैवाऽध्यापकाध्येतृसम्बन्धेन विद्यारक्षणमविद्यानिवारणं च करोति ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (ब्रह्मा) चारों वेदों का जाननेवाला (कीरिणा) सम्पूर्ण विद्याओं की स्तुति करनेवाले से (युयुजानः) मिलता हुआ (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (देवान्) विद्वानों की (सपर्यन्) सेवा करता और विद्यार्थियों को (उपशिक्षन्) समीप प्राप्त विद्या को ग्रहण कराता हुआ (अत्रिः) सम्पूर्ण विद्याओं में व्यापक (स्वर्भानोः) सूर्य्य की कान्ति के सदृश कान्ति जिसकी उसके (ग्राव्णः) मेघ से (सूर्यस्य) सूर्य के (दिवि) प्रकाश में (चक्षुः) नेत्र का (आ, अधात्) स्थापन करे वह (मायाः) बुद्धियों को प्राप्त होवे और अविद्याओं को (अप, अघुक्षत्) अपशब्दित करे ॥८॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो विद्वानों की सेवा करनेवाला, योगी, विद्या के प्रचार में प्रिय, विद्वान् होवे, वह जैसे बिजुली सूर्य और मेघ के सम्बन्ध से सृष्टि की पालना और दुःख का निवारण होता है, वैसे ही अध्यापक और अध्येता के सम्बन्ध से विद्या की रक्षा और अविद्या का निवारण करता है ॥८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शत्रुनाश के उपाय

    भावार्थ

    भा०- ( युयुजानः ) नाना प्रकार के योग अर्थात् सन्धि आदि उपाय करने वाला ( ब्रह्मा ) बड़े भारी राष्ट्र और धन का स्वामी, ( कीरिणा ) शत्रु पर फेंके जाने वाले शस्त्र बल से युक्त होकर ( ग्राव्णः ) शिलावत् शत्रुमर्दन करने वाले प्रबल दृढ़ ( देवान् ) विजयेच्छुक पुरुषों को ( सपर्यन् ) आदर सत्कार करता हुआ और उनको ( नमसा ) अन्न से, विनय से ( उप शिक्षन् ) शिक्षित करता हुआ, ( अत्रिः ) इस राष्ट्र का भोक्ता राजा वा प्रजा जन ( सूर्यस्य दिवि ) सूर्य के प्रकाशवत् तेजस्वी राजा के न्याय प्रकाश में ( चक्षुः ) यथार्थ दर्शन करने वाला विवेक : ( अदधात् ) धारण करे और वह राजा और प्रजाजन भी ( स्वर्भानोः मायाः ) प्रताप से चमकने वाले शत्रु की मायाओं को ( अप अघुक्षत् ) दूर करे। इसी प्रकार ( युयुजानः ब्रह्मा ) समाहित एवं अन्यों के प्रज्ञानों और संदेहों का समाधान करने वाला वेदज्ञ विद्वान् (कीरिणा) उदारता से वाणी द्वारा वितरण योग्य वचन द्वारा ( देवान् ग्राव्णः सपर्यन् ) विद्या के अभिलाषी और ज्ञान के पिपासु जनों को आदरपूर्वक देता हुआ (नमसा ) दण्ड सहित ( उप शिक्षन् ) उनको शिक्षा देता हुआ, स्वयं ( अत्रिः ) त्रिविध तापों और मन, वाक् काय के त्रिविध दोषों से रहित होकर (सूर्यंस्य दिवि ) सूर्यवत् सबको प्रकाश, वेद वा प्रभु के दिये वेद-ज्ञान-प्रकाश में (चक्षुः आधात् ) शिष्यों के ज्ञान चक्षुओं को स्थिर कर देता है । और ( स्वर्भानोः ) केवल सुख की प्रतीति कराने वाले राग, मोह की ( मायाः ) मायाओं, प्रवचनों खोटी बुद्धि, वासनाओं को ( अवजुघुक्षुत्) दूर करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ १–४ इन्द्रः । ५ सूर्यः । ६-९ अत्रिर्देवता ॥ छन्दः— १ निचृदुष्णिक् । २, ३ उष्णिक् । ९ स्वराडुष्णिक् । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    माया का अपगोहन [निवारण]

    पदार्थ

    [१] (ब्रह्मा) = 'अत्यन्त सात्त्विक वृत्तिवाला' ज्ञानी पुरुष (ग्राव्णः) = ज्ञानोपदेष्टाओं के साथ [गृणाति इति] (युयुजान:) = सम्पर्क में आता हुआ, (कीरिणा) = [कीर्यते अनेन] वासनाओं को दूर फेंकनेवाले स्तोत्रों से (सपर्यन्) = प्रभु पूजन करता हुआ, (नमसा) = नम्रता के साथ (देवान् उपशिक्षन्) = देवों के समीप शिक्षा को प्राप्त करता हुआ (अत्रिः) = काम-क्रोध-लोभ से दूर रहनेवाला यह पुरुष (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (सूर्यस्य चक्षुः) = ज्ञान सूर्य के प्रकाश को (आधात्) = स्थापित करता है। ज्ञान के प्रकाश की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि [क] हम उपदेष्टाओं के सम्पर्क में रहें, [ख] प्रभु का स्तवन करें, [ग] नम्रता से ज्ञानियों के समीप शिक्षा को प्राप्त करें। [२] ऐसा करने पर ही यह 'अत्रि' (स्वर्भानोः) = ज्ञान विनाशक वैषयिक रागरूप अज्ञान की (मायाः) = मायाओं को (अप अधुक्षत्) = अपने से दूर करता है, अपने से माया को दूर संवृत करता है, इससे आक्रान्त नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपदेष्टाओं के सम्पर्क में आना, प्रभु का स्तवन, नम्रता से ज्ञानियों से शिक्षा को प्राप्त करना । ये उपाय हैं जिनसे कि हम ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करते हैं और वैषयिक - रागरूप अज्ञान की माया से बच पाते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जसे विद्युत, सूर्य व मेघ यांच्या योगाने सृष्टीचे पालन व दुःखाचे निवारण होते. तसे विद्वानांची सेवा करणारा, योगी, विद्या प्रचार प्रिय, विद्वान विद्येचे रक्षण व अविद्येचे निवारण करतो. ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Then Atri, sagely scholar of four Vedas, free from threefold confusion, illusion and sufferance, collecting hymns of adoration, joining wise sages, singing songs of adoration in honour of Divinity, teaches and illuminates the supplicant disciple, removes the clouds, dispels the veil of darkness and illusion, and restores the light of the heavenly sun into the spirit.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes and duties of a learned person are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man ! the Brahma (knower of ll the four Vedas) associated with the admirer of all sciences, serves the enlightened with reverence and food, and imparts education to students, sets the eye of a glorious man who is like sun from cloud (ignorance) to the light of the sun (knowledge) and acquires good intellects and dispels all darkness of ignorance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the person serving the enlightened persons is a Yogi, and lover of the dissemination of knowledge. He himself is higher learned, preservers knowledge and dispels ignorance like electricity by the contact with the sun and the cloud (solar energy) protects the world and removes misery.

    Foot Notes

    (कीरिणा ) सकलविद्यास्तावकेन । कीरिरिति स्तोतृनाम (NG 3, 16)। = The admirer of all sciences. (अत्रिः ) सकलविद्याभ्यापकः । (अत्रिः ) अत सातत्य गमने । गते स्त्रिष्वर्थेष्वत्र प्राप्तिः सातत्येन व्याप्त्यर्थ-ग्रह्णम् । = Pervading or proficient in all sciences.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top