ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
प्रति॑ मे॒ स्तोम॒मदि॑तिर्जगृभ्यात्सू॒नुं न मा॒ता हृद्यं॑ सु॒शेव॑म्। ब्रह्म॑ प्रि॒यं दे॒वहि॑तं॒ यदस्त्य॒हं मि॒त्रे वरु॑णे॒ यन्म॑यो॒भु ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । मे॒ । स्तोम॑म् । अदि॑तिः । ज॒गृ॒भ्या॒त् । सू॒नुम् । न । मा॒ता । हृद्य॑म् । सु॒ऽशेव॑म् । ब्रह्म॑ । प्रि॒यम् । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । अस्ति॑ । अ॒हम् । मि॒त्रे । वरु॑णे । यत् । म॒यः॒ऽभुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति मे स्तोममदितिर्जगृभ्यात्सूनुं न माता हृद्यं सुशेवम्। ब्रह्म प्रियं देवहितं यदस्त्यहं मित्रे वरुणे यन्मयोभु ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। मे। स्तोमम्। अदितिः। जगृभ्यात्। सूनुम्। न। माता। हृद्यम्। सुऽशेवम्। ब्रह्म। प्रियम्। देवऽहितम्। यत्। अस्ति। अहम्। मित्रे। वरुणे। यत्। मयःऽभु ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - 'स्तोम व ब्रह्म' का अदिति द्वारा ग्रहण
पदार्थ -
[१] प्रभु कहते हैं कि (मे स्तोमम्) = मेरे स्तवन को (अदितिः) = [अ-दिति] व्रतों को न तोड़नेवाला, व्रतपालन करनेवाला व्यक्ति प्रति (जगृभ्यात्) = प्रतिदिन ग्रहण करे। इस प्रकार ग्रहण करे, (न) = जैसे कि (माता सूनुम्) = माता पुत्र को प्रेम से ग्रहण करती है। यह स्तोम उसके लिये (हृद्यम्) = हृदय के लिये प्रीतिकर हो तथा (सुशेवम्) = उत्तम कल्याण करनेवाला हो । वस्तुतः व्रतमय जीवनवाला पुरुष प्रतिदिन प्रभु-स्तवन करता है और अपने अन्दर आनन्द का अनुभव करता है । [२] (यत्) = जो (प्रियम्) = प्रीति को करनेवाला, प्रसन्नता को जन्म देनेवाला, (देवहितम्) = देवों के लिये हितकर, (अहम्) = व्यापक, [सब लोकों में इसी वेदज्ञान का प्रकाश प्रभु ने किया है, सो यह व्यापक तो है ही] यह वेदज्ञान (अस्ति) = है, और (यत्) = जो (मित्रे वरुणे) = सब के प्रति स्नेहवाले निद्वेष पुरुष में (मयोभु) = कल्याण को उत्पन्न करनेवाला है, उस वेदज्ञान को यह व्रतमय जीवनवाला पुरुष ग्रहण - करे।
भावार्थ - भावार्थ- हम व्रतमय जीवनवाले बनकर प्रतिदिन प्रातः- सायं प्रभु-स्तवन करें और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले बनें। स्तवन व ज्ञान ही हमारे लिये सुख व कल्याण को सिद्ध करते हैं।
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