Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - याजुषीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्रति॑ मे॒ स्तोम॒मदि॑तिर्जगृभ्यात्सू॒नुं न मा॒ता हृद्यं॑ सु॒शेव॑म्। ब्रह्म॑ प्रि॒यं दे॒वहि॑तं॒ यदस्त्य॒हं मि॒त्रे वरु॑णे॒ यन्म॑यो॒भु ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रति॑ । मे॒ । स्तोम॑म् । अदि॑तिः । ज॒गृ॒भ्या॒त् । सू॒नुम् । न । मा॒ता । हृद्य॑म् । सु॒ऽशेव॑म् । ब्रह्म॑ । प्रि॒यम् । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । अस्ति॑ । अ॒हम् । मि॒त्रे । वरु॑णे । यत् । म॒यः॒ऽभुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रति मे स्तोममदितिर्जगृभ्यात्सूनुं न माता हृद्यं सुशेवम्। ब्रह्म प्रियं देवहितं यदस्त्यहं मित्रे वरुणे यन्मयोभु ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रति। मे। स्तोमम्। अदितिः। जगृभ्यात्। सूनुम्। न। माता। हृद्यम्। सुऽशेवम्। ब्रह्म। प्रियम्। देवऽहितम्। यत्। अस्ति। अहम्। मित्रे। वरुणे। यत्। मयःऽभु ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! अदितिर्माता हृद्यं सूनुं न यो मे स्तोमं प्रति जगृभ्याद्यत्सुशेवं प्रियं देवहितं ब्रह्मास्ति यच्च मित्रे वरुणे मयोभ्वस्ति तदहमिष्टं मन्ये तथा यूयमपि मन्यध्वम् ॥२॥

    पदार्थः

    (प्रति) (मे) मम (स्तोमम्) स्तुतिम् (अदितिः) अखण्डसुखप्रदा (जगृभ्यात्) भृशं गृह्णीयात् (सूनुम्) अपत्यम् (न) इव (माता) (हृद्यम्) हृदयस्य प्रियम् (सुशेवम्) सुसुखकरम् (ब्रह्म) सच्चिदानन्दलक्षणं चेतनम् (प्रियम्) कमनीयं प्रीतिकरम् (देवहितम्) देवेभ्यो विद्वद्भ्यो हितकारि (यत्) (अस्ति) (अहम्) (मित्रे) प्राणे (वरुणे) उदाने (यत्) (मयोभुः) सुखं भावुकम् ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो जगदीश्वरः प्रेमभावेन स्तुतस्तदाऽऽज्ञासेवनं कृतं चेत्तर्हि स यथा कृपायमाणा माता सद्यो जातं बालकमिव धार्मिकमुपासकमनुगृह्णाति, यो जगदीश्वरः सर्वत्र व्याप्तोऽपि प्राणादिषु प्राप्यते तं सर्वदा सुखप्रदं वयमुपास्महि ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (अदितिः) पूर्ण सुख की देनेवाली (माता) माता (हृद्यम्) हृदय के प्रिय (सूनुम्) सन्तान के (न) सदृश जो (मे) मेरी (स्तोमम्) स्तुति को (प्रति, जगृभ्यात्) अत्यन्त ग्रहण करे और (यत्) जिस (सुशेवम्) उत्तम प्रकार सुख देनेवाले (प्रियम्) सुन्दर और प्रीतिकारक तथा (देवहितम्) देव अर्थात् विद्वानों के लिये हितकारक (ब्रह्म) सत्, चित् और आनन्दस्वरूप चेतन (अस्ति) है और (यत्) जो (मित्रे) प्राणवायु और (वरुणे) उदान वायु में (मयोभु) सुखकारक है, उसको (अहम्) मैं इष्ट मानता हूँ, वैसे आप लोग भी मानिये ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जगदीश्वर प्रेमभाव से स्तुति किया गया और जो उसकी आज्ञा का सेवन किया हो तो वह जैसे कृपा करनेवाली माता शीघ्र उत्पन्न हुए बालक पर वैसे धार्मिक उपासक जन पर दया करता है, जो जगदीश्वर सर्वत्र व्याप्त हुआ भी प्राणादिकों में पाया जाता है, उस सब काल में सुख देनेवाले परमात्मा की हम उपासना करें ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अखण्ड शासक परिषत् अदिति । उसके मातृवत् कर्त्तव्य

    भावार्थ

    भा०- ( अदितिः) अखण्ड शासन करने वाली परिषत् और दीनता रहित प्रजावर्ग ( मे ) मेरे ( स्तोमम् ) बलवीर्य, वचन, अधिकार और जन समूह को ( प्रति जगृभ्यात् ) ऐसे स्वीकार करे जैसे ( हृद्यं ) हृदयहारी ( सुशेवं ) उत्तम सुखजनक (सूनुं माता न ) पुत्र को माता स्वीकार करती है । ( यत् मयोभु ) जो सुखजनक (ब्रह्म) धन, बल वा ज्ञान ( देवहितं ) विद्वानों के हितकारी और ( प्रियम् ) अति प्रिय ( अस्ति ) है उसको ( अहं ) मैं ( मित्रे ) सर्वस्नेही और ( वरुणे ) सर्व दुःखवारक, श्रेष्ठ नायक स्वामी के अधीन रहकर प्राप्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    'स्तोम व ब्रह्म' का अदिति द्वारा ग्रहण

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (मे स्तोमम्) = मेरे स्तवन को (अदितिः) = [अ-दिति] व्रतों को न तोड़नेवाला, व्रतपालन करनेवाला व्यक्ति प्रति (जगृभ्यात्) = प्रतिदिन ग्रहण करे। इस प्रकार ग्रहण करे, (न) = जैसे कि (माता सूनुम्) = माता पुत्र को प्रेम से ग्रहण करती है। यह स्तोम उसके लिये (हृद्यम्) = हृदय के लिये प्रीतिकर हो तथा (सुशेवम्) = उत्तम कल्याण करनेवाला हो । वस्तुतः व्रतमय जीवनवाला पुरुष प्रतिदिन प्रभु-स्तवन करता है और अपने अन्दर आनन्द का अनुभव करता है । [२] (यत्) = जो (प्रियम्) = प्रीति को करनेवाला, प्रसन्नता को जन्म देनेवाला, (देवहितम्) = देवों के लिये हितकर, (अहम्) = व्यापक, [सब लोकों में इसी वेदज्ञान का प्रकाश प्रभु ने किया है, सो यह व्यापक तो है ही] यह वेदज्ञान (अस्ति) = है, और (यत्) = जो (मित्रे वरुणे) = सब के प्रति स्नेहवाले निद्वेष पुरुष में (मयोभु) = कल्याण को उत्पन्न करनेवाला है, उस वेदज्ञान को यह व्रतमय जीवनवाला पुरुष ग्रहण - करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम व्रतमय जीवनवाले बनकर प्रतिदिन प्रातः- सायं प्रभु-स्तवन करें और ज्ञान को ग्रहण करनेवाले बनें। स्तवन व ज्ञान ही हमारे लिये सुख व कल्याण को सिद्ध करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराची प्रेमाने (भक्ती) स्तुती केली जाते व त्याच्या आज्ञेचे पालन केले जाते तेव्हा जशी कृपा करणारी माता जन्मलेल्या बाळावर दया (प्रेम) करते. तसा परमेश्वर धार्मिक उपासकांवर दया करतो. जगदीश्वर सर्वत्र व्यापक असून प्राण इत्यादीमध्येही आहे सदैव सुख देणाऱ्या त्या परमेश्वराची आपण उपासना करावी ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Aditi, mother of eternal speech, receive and love my song of praise and prayer as a mother holds her child to the heart, dear, cherished and soothing. Brahma, lord Infinite that is dear, kind and benevolent to the noble people, supreme giver, who inspires prana and udana energies, is our lord adorable.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Vishvedevāh is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! a mother gives inviolable happiness to her lovely son ( in her lap), likewise is that Brahma (God) who is Absolute Existence, Absolute Consciousness and Absolute Bliss and is Giver of good happiness, Loving and Most desirable and Benevolent to the enlightened persons, He is giver of delight to the Prana and Udāna. listens to and accepts my glorification. I regard Him as Adorable Supreme Being. You should also regard Him as such.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! we adore that God who is Giver of happiness, when praised, lovingly and obeyed sincerely, is kind towards the righteous worshipper like a kind mother towards her new born child. He is All-pervading and yet is attained in the Pranas (through Pranayama).

    Foot Notes

    (अदितिः) अखण्डसुखप्रदा । अ + दो - अवखण्डने (दिवा० )। = Giver of inviolable happiness. (प्रियम् ) कमनीयं प्रीतिकरम् । प्रीञ्-तर्पणे कान्तौ च (क्रया) कान्ति:-कामना । = Loving and most desirable.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top