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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॑ स्तुहि प्रथ॒मं र॑त्न॒धेयं॒ बृह॒स्पतिं॑ सनि॒तारं॒ धना॑नाम्। यः शंस॑ते स्तुव॒ते शंभ॑विष्ठः पुरू॒वसु॑रा॒गम॒ज्जोहु॑वानम् ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । स्तु॒हि॒ । प्र॒थ॒मम् । र॒त्न॒ऽधेय॑म् । बृह॒स्पति॑म् । स॒नि॒तार॑म् । धना॑नाम् । यः । शंस॑ते । स्तु॒व॒ते । शम्ऽभ॑विष्ठः । पु॒रु॒ऽवसुः॑ । आ॒ऽगम॑त् । जोहु॑वानम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप स्तुहि प्रथमं रत्नधेयं बृहस्पतिं सनितारं धनानाम्। यः शंसते स्तुवते शंभविष्ठः पुरूवसुरागमज्जोहुवानम् ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। स्तुहि। प्रथमम्। रत्नऽधेयम्। बृहस्पतिम्। सनितारम्। धनानाम्। यः। शंसते। स्तुवते। शम्ऽभविष्ठः। पुरुऽवसुः। आऽगमत्। जोहुवानम् ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वदुपदेशविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्यैश्वर्य्ययुक्त ! यः पुरूवसुः शम्भविष्ठो जनः शंसते स्तुवते प्रथमं रत्नधेयं जोहुवानं बृहस्पतिं धनानां सनितारमागमत् तं त्वमुप स्तुहि ॥७॥

    पदार्थः

    (उप) (स्तुहि) (प्रथमम्) आदिमम् (रत्नधेयम्) रत्नानि धेयानि तेन तम् (बृहस्पतिम्) बृहतां पालकम् (सनितारम्) संविभाजकम् (धनानाम्) (यः) (शंसते) प्रशंसकाय (स्तुवते) प्रशंसां कुर्वते (शम्भविष्ठः) योऽतिशयेन शम्भावयति सः (पुरूवसुः) पुरूणि बहूनि वसूनि धनानि यस्य सः (आगमत्) आगच्छेत् (जोहुवानम्) आहूयमानमाह्वयितारं वा ॥७॥

    भावार्थः

    त एव प्रशंसनीया भवन्ति ये सर्वं सम्भज्य भुञ्जते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों के उपदेशविषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त ! (यः) जो (पुरूवसुः) बहुत धनों से युक्त (शम्भविष्ठः) अत्यन्त सुखकारक जन (शंसते) प्रशंसा करनेवाले और (स्तुवते) स्तुति करनेवाले के लिये (प्रथमम्) पहिले (रत्नधेयम्) रत्न धरने योग्य जिससे उस (जोहुवानम्) पुकारे गये वा पुकारनेवाले के लिये (बृहस्पतिम्) बड़ों के पालन करने और (धनानाम्) धनों के (सनितारम्) उत्तम प्रकार विभाग करनेवाले को (आगमत्) प्राप्त हो, उसकी आप (उप, स्तुहि) समीप में स्तुति करो ॥७॥

    भावार्थ

    वे ही जन प्रशंसा करने योग्य होते हैं, जो सब पदार्थ बाँट अर्थात् विभाग करके खाते हैं ॥७॥

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    विषय

    प्रधान पद योग्य जन । दुष्टों और कदयों को दण्ड ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वान् पुरुष ! तू ( प्रथमम् ) सबसे श्रेष्ठ, (रत्नधेय ) रमणीय, मनोहर गुणों को धारण करने वाले, ( बृहस्पतिम् ) बड़े भारी ज्ञान, वेद वाणी वा बड़े राष्ट्र के पालक और ( धनानां सनितारम् ) धनों का न्यायपूर्वक पात्रापात्र विवेक सहित देने और विभाग करने वाले उस ( जोहुवानम् ) आदरपूर्वक बुलाने योग्य उसको ( उप स्तुहि ) सब के समक्ष प्रस्तुत कर (यः) जो (शंसते स्तुवते) प्रशंसा और स्तुति प्रार्थना करने वाले को (शंभविष्ठः ) सबसे अधिक शान्ति सुख देने वाला और ( पुरुवसु ) बहुत से ऐश्वर्यो वा बसे प्रजा जनों का स्वामी होकर हमें ( आगमत् ) प्राप्त होता है । ऐसे व्यक्ति को प्रस्ताव और समर्थन करके अग्रणी पद पर नियुक्त करना चाहिये ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    स्तुवते शंभविष्ठः

    पदार्थ

    [१] हे उपासक! तू (उपस्तुहि) = उस प्रभु का स्तवन कर । जो (प्रथमम्) = [प्रथविस्तारे] निरतिशय विस्तारवाले सर्वव्यापक हैं, (रत्नधेयम्) = सब रमणीय पदार्थों के धारण करनेवाले हैं, (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी हैं तथा (धनानां सनितारम्) = सब धनों के देनेवाले हैं। [२] उस प्रभु का तू स्तवन कर जो (शंसते) = [शंस् to hurt] वासनाओं का विनाश करनेवाले और अतएव (स्तुवते) = प्रभु-स्तवन करनेवाले के लिये (शम्भविष्ठः) = अधिक से अधिक शान्ति को देनेवाले हैं। ये (पुरुवसुः) = पालक व पूरक धनोंवाले प्रभु (जोहुवानम्) = निरन्तर पुकारनेवाले को आगमत् प्राप्त होते ही हैं। प्रभु अपने उपासक को सब पालक व पूरक धनों की प्राप्ति कराते हैं। प्रभु का उपासक योगक्षेम की कमीवाला नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने कर्मों के द्वारा प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें सब आवश्यक धन व शान्ति प्राप्त करायेंगे। प्रभु से दूर होने पर इन धनों में शान्ति नहीं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सर्व पदार्थ वाटून खातात तेच लोक प्रशंसा करण्यायोग्य असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    First sing in honour of him close at hand who wields and governs the jewel wealth of existence, Brhaspati, Lord Almighty of the boundless universe, giver of wealth and honour, lord most blissful, omnificent, universally adored, who blesses the celebrant and supplicant, and brings him the wealth and honour prayed for.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The teachings of the enlightened persons are further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man endowed with the wealth of knowledge, praise that wealthy man who is the best among the bestowers of happiness upon all and who comes to Brihaspati (the protector of the great), invokes the person of God and praises virtuous man that glorifies being the best and upholders jewels and distributes all kinds of wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are always praise-worthy who eat and enjoy in association with others of distribute the wealth among the needy and deserving.

    Foot Notes

    (बृहस्पतिम् ) बुहतां पालम । बृहस्पतिः - बृहतः पाताना पालयिता वेति (NKT 10, 1, 22 )। = Protector of the great. (सनितारम् ) संविभाजकम् । षण-संभक्तौ (भ्वा० )। = Distributor in proper manner.

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