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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒स॒र्माणं॑ कृणुहि वि॒त्तमे॑षां॒ ये भु॒ञ्जते॒ अपृ॑णन्तो न उ॒क्थैः। अप॑व्रतान्प्रस॒वे वा॑वृधा॒नान्ब्र॑ह्म॒द्विषः॒ सूर्या॑द्यावयस्व ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽस॒र्माण॑म् । कृ॒णु॒हि॒ । वि॒त्तम् । ए॒षा॒म् । ये । भु॒ञ्जते॑ । अपृ॑णन्तः । नः॒ । उ॒क्थैः । अप॑ऽव्रतान् । प्र॒ऽस॒वे । व॒वृ॒धा॒नान् । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । सूर्या॑त् । य॒व॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विसर्माणं कृणुहि वित्तमेषां ये भुञ्जते अपृणन्तो न उक्थैः। अपव्रतान्प्रसवे वावृधानान्ब्रह्मद्विषः सूर्याद्यावयस्व ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽसर्माणम्। कृणुहि। वित्तम्। एषाम्। ये। भुञ्जते। अपृणन्तः। नः। उक्थैः। अपऽव्रतान्। प्रऽसवे। ववृधानान्। ब्रह्मऽद्विषः। सूर्यात्। यवयस्व ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! येऽपृणन्तो भुञ्जते न उक्थैः प्रसवे वावृधानानपव्रतान् ब्रह्मद्विषो निवारयन्त्येषां विसर्म्माणं वित्तं कृणुहि सूर्यात्तान् यावयस्व ॥९॥

    पदार्थः

    (विसर्माणम्) यो विसृजति तम् (कृणुहि) (वित्तम्) धनं भोगं वा (एषाम्) (ये) (भुञ्जते) (अपृणन्तः) अपूर्णा अपालयन्तो वा (नः) अस्माकम् (उक्थैः) उत्तमैर्वाक्यैः (अपव्रतान्) ब्रह्मचर्यसत्यभाषणादिव्रताचाररहितान् (प्रसवे) उत्पन्ने जगति (वावृधानान्) विवर्धमानान् (ब्रह्मद्विषः) ये ब्रह्म वेदं परमात्मानं वा द्विषन्ति (सूर्यात्) सवितुः (यावयस्व) अमिश्रितान् कुरु ॥९॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! येऽनाचारान् साचारानविदुषो विदुषः कृत्वा नास्तिकान् निरुध्याधर्माचरणात् पृथग्भूत्वा सततं सुखयन्ति ते माननीया भवन्ति ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (ये) जो (अपृणन्तः) नहीं पूर्ण वा नहीं पालन करते हुए (भुञ्जते) भोगते हैं और (नः) हमारे (उक्थैः) उत्तम वाक्यों से (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (वावृधानान्) अत्यन्त बढ़ते हुए (अपव्रतान्) ब्रह्मचर्य्य, सत्यभाषणादि व्रताचाररहित (ब्रह्मद्विषः) वेद वा परमात्मा से द्वेष करनेवालों को रोकते हैं (एषाम्) इन लोगों के (विसर्म्माणम्) उत्पन्न करनेवाले (वित्तम्) धन वा भोग को (कृणुहि) करो और (सूर्य्यात्) सूर्य्य से उनको (यावयस्व) अमिश्रित करो ॥९॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो लोग शुद्ध आचरणों से रहितों को शुद्ध आचरणों के सहित और अविद्वानों को विद्वान् करके नास्तिकों को रोक के अधर्म्म के आचरण से पृथक् होके निरन्तर सुखी करते, वे निरन्तर आदर करने योग्य होते हैं ॥९॥

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    विषय

    प्रधान पद योग्य जन । दुष्टों और कदयों को दण्ड ।

    भावार्थ

    भा०—हे राजन् ! ( ये ) जो लोग (नः) हमारे ( उक्थैः ) उत्तम वचनों से प्रेरित होकर भी ( नः अपृणन्तः ) हमें सम्पदाओं से नहीं पूर्ण करते हुए स्वयं ही ( भुञ्जते ) भोग करते रहते हैं (एषां ) उनके (वित्तम् ) धन को तू (वि- सर्माणम् ) विनाशशील ( कृणुहि ) कर । (प्र-सवे ) तेरे शासन या उत्तम ऐश्वर्य में रहकर भी (अपव्रतान् ) उत्तम कर्मों से रहित ( वावृधानान् ) बढ़ते हुए, (ब्रह्म-द्विषः ) धन वा वेद ज्ञान से द्वेष करने वाले मूर्खो, शत्रुओं को ( सूर्यात् ) सूर्य के प्रकाश से ( यवयस्व ) पृथक् कर, उनको कारागारादि में डाल ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ब्रह्मद्विष की दुर्गति

    पदार्थ

    (ये) = जो मनुष्य (नः) = हमारे (उक्थैः) = स्तुति वचनों से प्रेरित होकर भी (अपृणन्तः) = सन्तुष्ट न होते हुये स्वयं ही (भुञ्जते) = भोगते हैं। (एषाम्) = ऐसे मनुष्यों के (वित्तम्) = धन को (विसर्माणम्) = विनाश (कृणुहि) = कर । (प्रसवे) = तेरे शासन में भी (अपव्रतान्) = व्रत से रहितों को (वावृधानान्) = बढ़ते हुओं को (ब्रह्मद्विषः) = वेद विरोधियों को सूर्यात् सूर्य प्रकाश ज्ञान से यवयस्व दूर कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम व्रती बनकर बाँटकर खायें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जे लोक दुराचारी लोकांना सदाचारी करतात. अविद्वानांना विद्वान करून नास्तिकांना रोखतात. अधर्माचरणापासून पृथक राहून सतत सुखी करतात ते निरंतर आदर करण्यायोग्य असतात. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Render the wealth of those people fruitless and unproductive who eat by themselves inspite of our songs of divine praise in honour of charity. Deprive them of the light of the sun who observe no rules of good conduct, and who, while growing materially in the lord’s creation, revile the lord giver and desecrate the food.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The teachings of the enlightened persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! those who partake of enjoyment without giving satisfaction to other needy persons, put them apart from the sun (destroy them) (put them in dark cells into jails. Ed.) Those who remove or restrain on our advice the growing haters of God or devoid of the vows of Brahmacharya, truthfulness and other good conduct, make their wealth renouncer of everything, that is worthless.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those selfless persons are ever to be respected who make characterless people men of character, make ignorant persons highly learned and restrain the atheists and who keeping themselves away from all unrighteous conduct, make all others happy.

    Foot Notes

    (विसर्माणम्) यो विसृजति तम् । वि + सृज - विसर्गे (दिवा० ) (तुदा० )। = Thatch renounces all evils. (प्रसवे) उत्पन्ने जगति । प्र + षु प्रसवैश्वर्ययोः (भ्वा० ) अत्र प्रसवार्थः । = In this created world. (यावयस्व ) अमिश्रितान् कुरु । यु -मिश्रणामिश्रणयोः । अत्र अभिप्रणर्थे (अदा० )। = Put aside from.

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