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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उदी॑रय क॒वित॑मं कवी॒नामु॒नत्तै॑नम॒भि मध्वा॑ घृ॒तेन॑। स नो॒ वसू॑नि॒ प्रय॑ता हि॒तानि॑ च॒न्द्राणि॑ दे॒वः स॑वि॒ता सु॑वाति ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒य॒ । क॒विऽत॑मम् । क॒वी॒नाम् । उ॒नत्त॑ । ए॒न॒म् । अ॒भि । मध्वा॑ । घृ॒तेन॑ । सः । नः॒ । वसू॑नि । प्रऽय॑ता । हि॒तानि॑ । च॒न्द्राणि॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । सु॒वा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरय कवितमं कवीनामुनत्तैनमभि मध्वा घृतेन। स नो वसूनि प्रयता हितानि चन्द्राणि देवः सविता सुवाति ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ईरय। कविऽतमम्। कवीनाम्। उनत्त। एनम्। अभि। मध्वा। घृतेन। सः। नः। वसूनि। प्रऽयता। हितानि। चन्द्राणि। देवः। सविता। सुवाति ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा कृषीवला मध्वा घृतेन क्षेत्रादीनि सिक्त्वा शस्यादीनि लभन्ते तथैवैनं कवीनां कवितममुदीरयाभ्युदयायोनत्त। हे विद्वांसो ! यं कवीनां कवितममुदीरय स सविता देवो नो प्रयता चन्द्राणि हितानि वसूनि सुवाति ॥३॥

    पदार्थः

    (उत्) (ईरय) प्रेरयत (कवितमम्) अतिशयेन मेधाविनम् (कवीनाम्) मेधाविनाम् (उनत्त) विद्यासुशिक्षाभ्यां सिञ्चत (एनम्) (अभि) आभिमुख्ये (मध्वा) मधुरेण (घृतेन) उदकेनेव (सः) (नः) अस्मभ्यम् (वसूनि) द्रव्याणि (प्रयता) प्रयत्नसाध्यानि (हितानि) हितकराणि (चन्द्राणि) आनन्दप्रदानि सुवर्णादीनि (देवः) विद्वान् (सविता) विद्यैश्वर्य्यकारकः (सुवाति) सुवेत् प्रयच्छेत् ॥३॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसोऽध्यापका यो हि सर्वेभ्य उत्तमोऽखिलविद्योऽनूचानो विद्वान् भवेत्तं गृहाश्रमं मा कुर्वित्युपदिशत। येन संसारस्थमनुष्याणां महत्सुखं वर्धेत, कुतो यो हि पूर्णविद्यो भूत्वा गृहाश्रमं बहुव्यापारवत्त्वेन वीर्य्यादिक्षयादल्पायुर्भूत्वा सततं मनुष्यहितं कर्त्तुं न शक्नुयात् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे खेत बोनेवाले जन (मध्वा) मधुर (घृतेन) जल से क्षेत्र आदि सींच कर अन्नादिकों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही (एनम्) इस (कवीनाम्) बुद्धिमानों के मध्य में (कवितमम्) अत्यन्त बुद्धिमान् को (उत्, ईरय) उत्तमता से प्रेरणा देओ तथा (अभि, उनत्त) अभ्युदय के अर्थ विद्या और उत्तम शिक्षा से सींचो और हे विद्वन् ! जिस कवियों के मध्य में श्रेष्ठ कवि की प्रेरणा करो (सः) वह (सविता) विद्या और ऐश्वर्य्य का करनेवाला (देवः) विद्वान् (नः) हम लोगों के लिये (प्रयता) प्रयत्न से सिद्ध होने योग्य (चन्द्राणि) आनन्द के देनेवाले सुवर्ण आदि (हितानि) हितकारक (वसूनि) द्रव्यों को (सुवाति) देवे ॥३॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् अध्यापक पुरुषो ! आप लोग जो निश्चय करके सब से उत्तम, सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त, श्रेष्ठ विद्वान् होवे, उसको गृहाश्रम न कर, ऐसा उपदेश दीजिये। जिससे संसार में वर्त्तमान मनुष्यों का बड़ा सुख बढ़े, क्योंकि जो निश्चय करके पूर्ण विद्यायुक्त होकर गृहाश्रम को करे, वह बहुत व्यापारवान् होने से, वीर्य्य आदि के नाश होने से, थोड़ी अवस्थायुक्त होकर निरन्तर मनुष्यों के हित करने को नहीं समर्थ होवे ॥३॥

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    विषय

    विद्वानों में उत्तम का अभिषेक ।

    भावार्थ

    भा०-हे राष्ट्रवासी जनो ! ( कवीनाम् ) दूरदर्शी विद्वान् पुरुषों में से ( कवितमं ) सबसे उत्तम विद्वान् को ( उत्-ईरय ) सबसे उत्तम पद प्राप्त करने की प्रेरणा करो । ( एनम् ) उसको ( मध्वा घृतेन ) मधुर शोभाजनक ज्ञान वा जल से ( अभि-उनत्त ) अभिषेक करो । ( सः ) वह ( देवः ) सूर्यवत् तेजस्वी, ज्ञान का प्रकाशक और धनों का दाता और ( सविता ) सब ऐश्वर्यो का उत्पादक होकर (नः) हमें (हितानि ) हितकारी (प्रयता ) प्रयत्न से प्राप्त करने योग्य ( चन्द्राणि ) आह्लाद जनक सुवर्ण आदि धन ( वसूनि ) और बसने योग्य नाना पदार्थ भी ( सुवाति ) प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रभु-स्मरणमाधुर्य व ज्ञानदीप्ति

    पदार्थ

    [१] (कवीनां कवितमम्) [गुरूणां गुरुं] = ज्ञानियों में सर्वातिशायी ज्ञानवाले प्रभु को (उदीरय) = उच्चारित करो। प्रभु के नामों का उच्चारण करो, उन्हीं के अर्थ का भावन करो । (एनम्) = इस ऋषि: शरीर को (मध्वा) = माधुर्य से तथा (घृतेन) = ज्ञानदीप्ति से (अभि उनत्त) = अच्छी प्रकार सिक्त करो। संक्षेप में, प्रभु का स्मरण करो और जीवन को मधुर व ज्ञानदीप्त बनाओ। [२] ऐसा करने पर (सः) = वह (सविता देव:) = सब का प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (नः) = हमारे लिये (वसूनि) = उन धनों को सुवाति उत्पन्न करते हैं, जो (प्रयता) = पवित्र हैं, पवित्र साधनों से कमाये गये हैं, (हितानि) = हितकर हैं, (चन्द्राणि) = आह्लाद को देनेवाले हैं। ये धन हमारे जीवन में उन्नति के लिये साधनभूत होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु-स्मरणपूर्वक जीवन को मधुर व ज्ञानदीप्त बनाने के लिये यत्नशील हों प्रभु हमारे लिये आवश्यक धनों को प्राप्त करायेंगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वान अध्यापकांनो! जो निश्चयपूर्वक सर्वात उत्तम संपूर्ण विद्यांनी युक्त श्रेष्ठ विद्वान असेल त्याने गृहस्थाश्रम स्वीकारू नये, असा तुम्ही उपदेश करा. ज्यामुळे जगातील माणसांचे सुख वाढेल. कारण जो निश्चयपूर्वक पूर्ण विद्या शिकून गृहस्थाश्रमी बनेल तर व्यापारी होईल. वीर्याचा नाश करून अल्पायुषी ठरेल व निरंतर माणसांचे हित करण्यास समर्थ होऊ शकणार नाही. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Sing, celebrate him that is the most imaginative of poets, exalt him with honey sweets of song and homage, and may he, the inspirer creator, Savita, refulgent and generous lord, in response to our homage and effort, give us cherished wealth and honour of our choice for the good of our body, mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the Vishvedevah enlightened persons is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! as the peasants irrigate/ sprinkle their farms with sweet water and get food grains etc., in the same manner, you should urge the best among the wise for prosperity, and sprinkle (purify) him with knowledge and good education. O learned persons! may that enlightened person who is the giver of the wealth of knowledge bestow upon us riches which can be acquired with labor, and are beneficial and consist of joy-giving. gold etc.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened teacher! urge upon him, who is the best among the scholars and most well-versed in the Vedas and in all sciences, not to enter the householder's life, so that the men of the world may enjoy great happiness. The reason is that if a man who is perfect in knowledge enters the household life, being very busy with his domestic duties and business etc. and necessarily spends his vital energy for procreation etc., he may not be able to do much good to the people ceaselessly.

    Foot Notes

    (उनत्त) विद्यासुशिक्षाभ्यां सिंचत । (उनत्त) उन्दीक्लेदने (रुधा )। = Sprinkle or purify with knowledge and good education. (घृतेन) उदकेनेव । मधु इति उदकनाम (NG 1,12)। = water. (चन्द्राणि) आनन्दप्रदानि सुवर्णादीनि । चन्द्रम् इति हिरण्यनाम (NG 1,2) चदिआल्हादे । = Gold etc. which give joy.

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