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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 13
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र सू म॒हे सु॑शर॒णाय॑ मे॒धां गिरं॑ भरे॒ नव्य॑सीं॒ जाय॑मानाम्। य आ॑ह॒ना दु॑हि॒तुर्व॒क्षणा॑सु रू॒पा मि॑ना॒नो अकृ॑णोदि॒दं नः॑ ॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सु । म॒हे । सु॒श॒र॒णाय॑ । मे॒धाम् । गिर॑म् । भ॒रे॒ । नव्य॑सीम् । जाय॑मानाम् । यः । आ॒ह॒नाः । दु॒हि॒तुः । व॒क्षणा॑सु । रू॒पा । मि॒ना॒नः । अकृ॑णोत् । इ॒दम् । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सू महे सुशरणाय मेधां गिरं भरे नव्यसीं जायमानाम्। य आहना दुहितुर्वक्षणासु रूपा मिनानो अकृणोदिदं नः ॥१३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। सु। महे। सुऽशरणाय। मेधाम्। गिरम्। भरे। नव्यसीम्। जायमानाम्। यः। आहना। दुहितुः। वक्षणासु। रूपा। मिनानः। अकृणोत्। इदम्। नः ॥१३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 13
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यो मनुष्यो वक्षणासु दुहितू रूपा आहना मिनानो न इदं प्राप्तानकृणोत्। तेनाहं महे सुशरणाय नव्यसीं जायमानां मेधां गिरं च प्र सू भरे ॥१३॥

    पदार्थः

    (प्र) (सू) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (महे) महते (सुशरणाय) शोभनायाऽऽश्रयाय (मेधाम्) प्रज्ञाम् (गिरम्) वाचम् (भरे) धरामि (नव्यसीम्) अतिशयेन नूतनाम् (जायमानाम्) प्रसिद्धाम् (यः) (आहनाः) या आहन्यन्ते ताः (दुहितुः) कन्यायाः (वक्षणासु) वहमानासु नदीषु (रूपा) सुन्दराणि रूपाणि (मिनानः) मानं कुर्वाणः (अकृणोत्) कुर्यात् (इदम्) वर्त्तमानं सुखम् (नः) अस्मान् ॥१३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यथा सरूपां दुहितरं दृष्ट्वैतस्याः सदृशं पतिं कारयित्वेव प्रज्ञां शिक्षितां वाचं वर्द्धयित्वा गृहाश्रमजन्यं सुखं सर्वान् मनुष्यान् यूयं प्रापयत ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (यः) जो मनुष्य (वक्षणासु) बहती हुई नदियों के निमित्त (दुहितुः) कन्या के (रूपा) सुन्दर रूपों (आहनाः) और जो सब और से ताड़ित होती उनका (मिनानः) मान करता हुआ (नः) हम लोगों को (इदम्) इस वर्त्तमान सुख में पाये हुए (अकृणोत्) करे उसके साथ मैं (महे) बड़े (सुशरणाय) उत्तम आश्रय के लिये (नव्यसीम्) अत्यन्त नवीन (जायमानाम्) प्रसिद्ध (मेधाम्) उत्तम बुद्धि और (गिरम्) वाणी को (प्र, सू, भरे) उत्तम प्रकार धारण करता हूँ ॥१३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! समान रूपवाली कन्या को देखके ही उसका सदृश पति कराने के समान बुद्धि और शिक्षित वाणी को बढ़ाय के गृहाश्रम से उत्पन्न हुए सुख को सब मनुष्यों के लिये आप लोग प्राप्त कराओ ॥१३॥

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    विषय

    गृहस्थ वत् राज्य व्यवहार । पक्षान्तर में 'आहना' प्रकृति का वर्णन

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( आहना : ) अभिगन्ता पुरुष ( दुहितुः वक्षणासु रूपा मिनानः ) कामना पूर्ण करने हारी स्त्री की नाड़ियों में उत्तम पुत्रादि को उत्पन्न करता हुआ (इदं अकृणोत्) ये सब गृहस्थादि करता है उसी प्रकार ( यः ) जो इन्द्र विद्युत् वत् बलशाली, ( आहनाः ) आघात करने हारा शिल्पी, वा राजा, ( दुहितुः वक्षणासु ) सब प्रकार के जल अन्न आदि रस देने वाली भूमि के ऊपर बहती नदियों के आधार पर ( रूपा मिमानः ) नाना रुचिकर पदार्थों को उत्पन्न करता हुआ ( नः इदं ( अकृणोत् ) हमारे लिये यह सब कुछ करता है । उस ( सु-शरणाय ) उत्तम प्रजा के शरण देने वाले (महे) उत्तम राजा की ( जायमानां ) प्रकट हुई ( नव्यसीं ) अति नव्य, उत्तम, ( मेधां ) बुद्धि और ( गिरं) वाणी को ( प्र सु भरे ) अच्छे प्रकार से पुष्ट करूं । उसके निमित्त उत्तम चाणी का प्रयोग करूं । ( २ ) वह सुखशरण, प्रभु है जो सर्वत्र व्यापक होने से 'आहना' है । सकल दोग्ध्री प्रकृति के भीतर से वह नाना रूप रच कर इस जगत् को उत्पन्न करता है, उस प्रभु के ज्ञान के लिये मैं उत्तम बुद्धि और स्तुति करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मेधा-ज्ञान की वाणी

    पदार्थ

    [१] उस (महे) = महान् (सुशरणाय) = उत्तम रक्षक प्रभु की प्राप्ति के लिये मैं (मेधाम्) = बुद्धि को जो (नव्यसी जायमानाम्) = दिन ब दिन अधिक स्तुत्य होती जाती हैं अथवा 'नव नव उन्मेषशालिनी' है तथा (गिरे) = इस वेदवाणीरूप ज्ञानवाणी को प्र सु भरे खूब अच्छी प्रकार अपने अन्दर भरता हूँ । इस मेधा व इन ज्ञानवाणियों से ही तो मैं प्रभु का दर्शन कर पाऊँगा । [२] उस प्रभु की प्राप्ति के लिये मैं अपने में (मेधा) = का धारण करता हूँ (यः) = जो (आहना:) = वासनाओं के (आहन्ता) = [विनाशक] होते हुए (दुहितुः) = इस प्रपूरिका वेदवाणी की वक्षणासु वृद्धि की होने पर (रूपा मिनान:) = हमारे उत्तम रूपों का निर्माण करने के हेतु से (इदं) = इस जगत् को (नः) = हमारे लिये (अकृणोत्) = करते हैं । प्रभु ने यह सृष्टि इसी उद्देश्य से बनायी है कि जीव इसमें आकर, सब साधनों से सम्पन्न होकर, वासनाओं में न फँसे और वेदज्ञान का अपने में वर्धन करता हुआ उत्कृष्टरूपवाले जीवन का निर्माण करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम बुद्धि का सम्पादन करके ज्ञान को प्राप्त करें। प्रभु यह संसार इसीलिए बनाते हैं कि हम वेदज्ञान को अपने अन्दर भरते हुए दिन ब दिन उत्कृष्टरूप युक्त जीवनवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! समान रूप असलेल्या कन्येला तसाच पती निवडा व समान बुद्धी व सुसंस्कृत वाणी वर्धित करून सर्व माणसांना गृहस्थाश्रमाचे सुख प्राप्त करवून द्या. ॥ १३ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I offer my latest song of praise arising spontaneously and dedicate my intellect and imagination in honour of Indra, blissful shelter of the world, who, sculptor of the forms of his creation, has provided and made to flow this water for us in the streams of his daughter, the earth.

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