ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 15
ए॒ष स्तोमो॒ मारु॑तं॒ शर्धो॒ अच्छा॑ रु॒द्रस्य॑ सू॒नूँर्यु॑व॒न्यूँरुद॑श्याः। कामो॑ रा॒ये ह॑वते मा स्व॒स्त्युप॑ स्तुहि॒ पृष॑दश्वाँ अ॒यासः॑ ॥१५॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । स्तोमः॑ । मारु॑तम् । शर्धः॑ । अच्छ॑ । रु॒द्रस्य॑ । सू॒नून् । यु॒व॒न्यून् । उत् । अ॒श्याः॒ । कामः॑ । रा॒ये । ह॒व॒ते॒ । मा॒ । स्व॒स्ति । उप॑ । स्तु॒हि॒ । पृष॑त्ऽअश्वान् । अ॒यासः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष स्तोमो मारुतं शर्धो अच्छा रुद्रस्य सूनूँर्युवन्यूँरुदश्याः। कामो राये हवते मा स्वस्त्युप स्तुहि पृषदश्वाँ अयासः ॥१५॥
स्वर रहित पद पाठएषः। स्तोमः। मारुतम्। शर्धः। अच्छ। रुद्रस्य। सूनून्। युवन्यून्। उत्। अश्याः। कामः। राये। हवते। मा। स्वस्ति। उप। स्तुहि। पृषत्ऽअश्वान्। अयासः ॥१५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 15
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ रुद्रविषयकं विद्वत्कर्त्तव्यशिक्षाविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यः कामो मा राये स्वस्ति हवते तमुपस्तुहि येऽयासः पृषदश्वान् प्राप्नुवन्ति तान् युवन्यूँस्त्वमुदश्याः। य एषः स्तोमो मारुतं शर्धो हवते तं रुद्रस्य सूनूनच्छोदश्याः ॥१५॥
पदार्थः
(एषः) (स्तोमः) श्लाघाविषयः (मारुतम्) मनुष्याणामिदम् (शर्धः) बलम् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (रुद्रस्य) प्राणादिरूपस्य वायोः (सूनून्) प्रसवगुणान् (युवन्यून्) आत्मनो मिश्रितानमिश्रितान् पदार्थानिच्छून् (उत्) (अश्याः) प्राप्नुयाः (कामः) इच्छा (राये) धनाय (हवते) गृह्णाति (मा) माम् (स्वस्ति) सुखम् (उप) (स्तुहि) (पृषदश्वान्) सिञ्चकानाशुगामिनः पदार्थान् वा (अयासः) गच्छन्तः ॥१५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं वह्निमेघविद्यां विज्ञायालङ्कामा भवत ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब रुद्रविषयक विद्वत्कर्त्तव्य शिक्षाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥१५॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जो (कामः) इच्छा (मा) मुझ को (राये) धन के लिये (स्वस्ति) सुख को (हवते) ग्रहण करती है उसकी (उप, स्तुहि) समीप में स्तुति प्रशंसा कीजिये और जो (अयासः) चलते हुए (पृषदश्वान्) सींचनेवाले तथा शीघ्र चलेवाले पदार्थों को प्राप्त होते हैं उन (युवन्यून्) अपने मिले और नहीं मिले हुए पदार्थों की इच्छा करते हुओं को आप (उत्, अश्याः) अत्यन्त प्राप्त हूजिये और जो (एषः) यह (स्तोमः) प्रशंसा का विषय (मारुतम्) मनुष्यों के इस (शर्धः) बल को ग्रहण करता है उस (रुद्रस्य) प्राण आदि है रूप जिसका ऐसे वायु के (सूनून्) उत्पत्ति के गुणों को (अच्छा) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये ॥१५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग वह्नि और मेघविद्या को जानकर पूर्ण मनोरथवाले हूजिये ॥१५॥
विषय
सैन्य बल का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- ( एषः स्तोमः ) यह स्तुति योग्य, उत्तम बल वा अधिकार ( मारुतं शर्धः ) और यह वायु वेग से आक्रमण करने वाला सैन्य बल ( रुद्रस्य ) दुष्टों को रुलाने और शत्रु को रोकने वाले प्रबल सेनानायक के ( युवन्यून् ) जवानों के दलपतियों और ( सूनून् ) सैन्यों के सञ्चालक नायकों को ( अच्छ ) भली प्रकार ( उत् अश्याः) उत्तम रीति से प्राप्त हो । ( स्वस्ति ) सुख, कल्याणकारक ( मा ) मुझे ( राये ) धन प्राप्त करने का ( कामः) उत्तम संकल्प ( हवते ) प्राप्त हो ! हे विद्वन् ! तू (अयासः) जाने वाले ( पृषद्-अश्वान् ) वाण वर्षी, बलवान् अश्वारोहियों, हृष्ट पुष्ट अश्वों से युक्त रथों का ( उपस्तुहि ) स्तुति उपदेश कर । प्रजा वर्ग को जब धन-समृद्धि की अभिलाषा हो तब अधिकार उत्तम नायकों को प्राप्त हों और विद्वान् लोग उत्तम वेगवान् रथादि का उपदेश करें जिससे व्यापार की तीव्र वृद्धि हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्राणसाधना का महत्त्व
पदार्थ
[१] (एषः) = यह (स्तोमः) = मेरे से किये जानेवाला स्तुति समूह (मारुतं शर्धः) = अच्छा प्राणों के बल की ओर (उअश्याः) = उत्कर्षेण प्राप्त हो । 'मरुत्' प्राण हैं, 'प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान' आदि नामों से प्रसिद्ध इन प्राणों का सैन्य है। मैं इनका स्तवन करूँ, अर्थात् प्राणसाधना करनेवाला बनूँ। उन प्राणों की साधना करूँ जो (रुद्रस्य सूनून्) = उस रुद्र के पुत्र हैं, वस्तुत: सब रोगों की चिकित्सा करनेवाले प्रभु [रुद्र] इन प्राणरूप पुत्रों के द्वारा ही हमारे रोगों का द्रावण करते हैं। (युवन्यून्) = ये प्राण सब बुराइयों को हमारे से पृथक् करनेवाले हैं और अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले हैं। [२] (कामः) = यह इच्छा, (मा) - मुझे (राये हवते) = धन के लिये पुकारती है, अर्थात् मेरा मन बारम्बार इस धन की ओर ही भागता है। (स्वस्ति) = मेरा कल्याण हो । सो हे मेरे मन ! तू (पृषदश्वान्) = [पृषु सेचने] शक्ति के द्वारा इन्द्रियाश्वों को सिक्त करनेवाले (अयासः) = निरन्तर गतिशील इन मरुतों को ही (उपस्तुहि) = स्तुत कर इनकी साधना ही अन्ततः कल्याण करनेवाली है। सांसारिक धन्धों में उलझकर हम प्राणसाधना रूप अध्यात्म उन्नति के मार्ग से विचलित न हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना करते हुए [क] इन्द्रियों को सशक्त बनाएँ, [ख] खूब स्फूर्तिमय जीवनवाले हों, [ग] बुराइयों को दूर कर अच्छाइयों से अपने को युक्त करें कहीं धन के धन्धे में उलझकर प्राणसाधना को न छोड़ दें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही अग्नी व मेघविद्या जाणून पूर्ण मनोरथी बना. ॥ १५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let this song of praise reach and excite the power and force of the Maruts, fellow humans, youthful children of Rudra, Lord of law, justice and discriminative wisdom, and let my love and desire inspire them for wealth and honour of the world. O celebrant, celebrate the dynamic forces of humanity, generous and showerful as the clouds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons regarding Rudra (Prana or wind) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! praise that good desire which invokes urges for prosperity. Approach those actively moving scientists, who have rapid-going things (vehicles) and desire pure or mixed substances. Mention this my praise regarding the vigor of the brave mortals and the productive properties of the air in the form of the Pranas.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! fulfil your desires by knowing thoroughly the science of fire and cloud.
Foot Notes
(रुद्रस्य) प्राणदिरूपस्य वायो: । कतेमे रुद्रा दशेमेषुरुष प्राणा: (Stph 17, 6, 3, 7 ) । दश पुरुषे प्राणा इति हो वात्र आत्मैकादशः ) ते वादो क्रामन्ते यन्त्यथ रोददन्ति तदस्माद् रुद्रा इति (Jaiminiyopanishad Brahman ) ! = Of the air in the form of the Pranas. (सूनून् ) प्रसवगुणान् । = Productive properties. (व्यासः) गच्छन्तः । = Going, moving.
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