ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 14
प्र सु॑ष्टु॒तिः स्त॒नय॑न्तं रु॒वन्त॑मि॒ळस्पतिं॑ जरितर्नू॒नम॑श्याः। यो अ॑ब्दि॒माँ उ॑दनि॒माँ इय॑र्ति॒ प्र वि॒द्युता॒ रोद॑सी उ॒क्षमा॑णः ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु॒ऽस्तु॒तिः । स्त॒नय॑न्तम् । रु॒वन्त॑म् । इ॒ळः । पति॑म् । ज॒रि॒तः॒ । नू॒नम् । अ॒श्याः॒ । यः । अ॒ब्दि॒ऽमान् । इय॑र्ति । प्र । वि॒ऽद्युता॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒क्षमा॑णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सुष्टुतिः स्तनयन्तं रुवन्तमिळस्पतिं जरितर्नूनमश्याः। यो अब्दिमाँ उदनिमाँ इयर्ति प्र विद्युता रोदसी उक्षमाणः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सुऽस्तुतिः। स्तनयन्तम्। रुवन्तम्। इळः। पतिम्। जरितः। नूनम्। अश्याः। यः। अब्दिऽमान्। उदनिऽमान्। इयर्ति। प्र। विऽद्युता। रोदसी इति। उक्षमाणः ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे जरितस्त्वं योऽब्दिमानुदनिमान् रोदसी उक्षमाणो विद्युता सह मेघ इयर्त्ति यस्सुष्टुतिरस्ति तं स्तनयन्तं नूनं प्राश्यास्त्वं रुवन्तमिळस्पतिं प्र ज्ञापयेः ॥१४॥
पदार्थः
(प्र) प्रकर्षेण (सुष्टुतिः) शोभना प्रशंसा (स्तनयन्तम्) गर्जनां कुर्वन्तम् (रुवन्तम्) शब्दयन्तम् (इळः) पृथिव्याः (पतिम्) पालकम् (जरितः) स्तावकः (नूनम्) निश्चयेन (अश्याः) प्राप्नुयाः (यः) (अब्दिमान्) जलदवान् (उदनिमान्) बहूदकः (इयर्त्ति) प्राप्नोति (प्र) (विद्युता) तडिता सह (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (उक्षमाणः) सिञ्चमानः ॥१४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यो मेघो भूमिस्थानां जीवानां पालकस्तथा विद्युता सह वर्षयञ्छब्दयन् भूमिं प्राप्नोति तं विदित्वाऽन्यान् विज्ञापयत ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जरितः) स्तुति करनेवाले ! आप (यः) जो (अब्दिमान्) मेघों से युक्त और (उदनिमान्) बहुत जलवाला (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (उक्षमाणः) सींचता हुआ (विद्युता) बिजली के साथ मेघ (इयर्त्ति) प्राप्त होता है और जो (सुष्टुतिः) उत्तम प्रशंसायुक्त है उस (स्तनयन्तम्) गर्जना करते हुए को (नूनम्) निश्चय से (प्र, अश्याः) प्राप्त होओ और आप (रुवन्तम्) शब्द करते हुए (इळः) पृथिवी के (पतिम्) पालन करनेवाले की (प्र) उत्तम प्रकार जनाइये ॥१४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो मेघ भूमि में वर्त्तमान जीवों का पालन करनेवाला, बिजुली के साथ वृष्टि करता और शब्द करता हुआ भूमि को प्राप्त होता है, उसको जान के अन्यों को जनाइये ॥१४॥
विषय
मेघवत् गुरु का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे ( जरितः ) स्तुतिकर्त्तः ! तू ( सु-स्तुतिः) उत्तम स्तुतिकर्त्ता होकर ( स्तनयन्तं ) मेघवत् गर्जनाशील, ( रुवन्तम् ) उत्तम उपदेश देते हुए, (इडस्पतिं) भूमि और वाणी की पालना करने वाले, उस विद्वान् को ( प्र अश्याः ) आदरपूर्वक प्राप्त हो ( यः ) जो ( अब्दिमान् ) मेघ के तुल्य ही जलवत् ज्ञानों और कर्मों का उपदेश देने वाला, (उदनिमान् ) जल के तुल्य ही उत्तम पद पर ले जाने वाले कर्म से युक्त होकर (विद्युता) विद्युत् वत् दीप्ति या तेज से युक्त होकर ( उक्षमाणः ) शिष्यों को ज्ञान जल से स्नान कराता हुआ ( रोदसी इयर्त्ति ) आकाश और भूमिवत् राजा प्रजा वर्गों को समान रूप से प्राप्त होता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'अन्तर्जगत् व बाह्यजगत्' में प्रभु की गर्जना
पदार्थ
[१] हे (जरितः) = स्तोत: ! (नूनम्) = निश्चय से तेरी (सुष्टुतिः) = उत्तम स्तुति उस प्रभु को (प्र अश्या:) = प्रकर्षेण व्याप्त करे, अर्थात् तू उस प्रभु का स्तवन करनेवाला बन जो (स्तनयन्तम्) = तेरे हृदयान्तरिक्ष में 'ऋग्, यजु, सामरूप' तीन वाणियों का गर्जन कर रहे हैं 'तिस्रो वाच उदीरते हरिरेति कनिक्रदत्' । (रुवन्तम्) = जो तुझे निरन्तर ज्ञानोपदेश दे रहे हैं [रु शब्दे] (इडस्पतिम्) = जो ज्ञान की वाणियों के स्वामी हैं । [२] (यः) = जो प्रभु (अब्दिमान्) = इस बाह्य अन्तरिक्ष में मेघोंवाले हैं, (उदनिमान्) = जलोंवाले हैं तथा (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (विद्युता) = विशिष्ट दीप्ति से (उक्षमाणः) = सिक्त से करते हुए (प्र इयर्ति) = प्रकर्षेण गति कर रहे हैं। प्रभु हृदयान्तरिक्ष को ज्ञान की वाणियों से दीप्त करते हैं और बाह्य अन्तरिक्ष को सूर्य आदि की दीप्ति से दीप्त कर रहे हैं। क्या अन्दर क्या बाहिर है सर्वत्र प्रभु की दीप्ति । इस दीप्ति को इस रूप में देखनेवाला ही प्रभु का सच्चा उपासक है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमारे हृदयान्तरिक्ष में ज्ञान की वाणियों का गर्जन कर रहे हैं। बाह्य अन्तरिक्ष में बादलों व विद्युत् की गर्जना को करा रहे हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! जो मेघ भूमीवरील जीवांचा पालनकर्ता, विद्युतसह वृष्टिकर्ता असून गर्जना करीत भूमीवर पडतो त्याला जाणा व इतरांनाही जाणवून द्या. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let this celebrative song, O celebrant, rise and reach the roaring, thundering lord of earth and eternal speech who, replete with blissful waters, rolling like spatial oceans, goes forward sprinkling the earth and illuminating heaven and earth with the showers of light and life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the learned persons are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O admirer of good things and virtues ! acquire the knowledge (and nature. Ed.) of that cloud which has much water and particles in it, which sprinkles heaven and earth and is seen with lightning, and which has many praiseworthy attributes. Tell about this thundering cloud which is the protector or sustainer of the earth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should know well the properties of the cloud which protects or nourishers many beings on earth and which come to earth with lightning raining and thunders.
Foot Notes
(इछ:) पृथिव्याः । इछ इति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = Of the earth. (रुवन्तम् ) शब्दयन्तम् । रु शब्दे (अदा० )। = Thund (उक्षमाणः) सिंचमानः । = Sprinkling.
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