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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    समि॑न्द्र णो॒ मन॑सा नेषि॒ गोभिः॒ सं सू॒रिभि॑र्हरिवः॒ सं स्व॒स्ति। सं ब्रह्म॑णा दे॒वहि॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वानां॑ सुम॒त्या य॒ज्ञिया॑नाम् ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । इ॒न्द्र॒ । नः॒ । मन॑सा । ने॒षि॒ । गोभिः॑ । सम् । सू॒रिऽभिः॑ । ह॒रि॒ऽवः॒ । सम् । स्व॒स्ति । सम् । ब्रह्म॑णा । दे॒वऽहि॑त॒म् । यत् । अस्ति॑ । सम् । दे॒वाना॑म् । सु॒ऽम॒त्या । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः सं सूरिभिर्हरिवः सं स्वस्ति। सं ब्रह्मणा देवहितं यदस्ति सं देवानां सुमत्या यज्ञियानाम् ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। इन्द्र। नः। मनसा। नेषि। गोभिः। सम्। सूरिऽभिः। हरिऽवः। सम्। स्वस्ति। सम्। ब्रह्मणा। देवऽहितम्। यत्। अस्ति। सम्। देवानाम्। सुऽमत्या। यज्ञियानाम् ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यतस्त्वं यद् गोभिः सह सं स्वस्त्यस्ति तन्नो मनसा सन्नेषि। हे हरिवो ! यत्सूरिभिः सह स्वस्त्यस्ति तन्नः सन्नेषि। यद् ब्रह्मणा सह देवहितं स्वस्त्यस्ति तन्न सन्नेषि। यद्यज्ञियानां देवानां सुमत्या सह देवहितं स्वस्त्यस्ति तन्नः सन्नेषि तस्मात् सत्कर्त्तव्योऽसि ॥४॥

    पदार्थः

    (सम्) उत्तमप्रकारेण (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्यसम्पन्न (नः) अस्मान् (मनसा) विज्ञानेन (नेषि) नयसि (गोभिः) इन्द्रियैर्वाग्भिर्वा (सम्) (सूरिभिः) विद्वद्भिस्सह (हरिवः) प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सम्) (स्वस्ति) सुखम् (सम्) (ब्रह्मणा) वेदेन धनेनाऽन्नेन वा (देवहितम्) (यत्) (अस्ति) (सम्) (देवानाम्) विदुषाम् (सुमत्या) श्रेष्ठया प्रज्ञया (यज्ञियानाम्) यज्ञकर्तॄणाम् ॥४॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यूयं सत्यवाचा विद्वत्सङ्गेन वेदविद्यया श्रेष्ठप्रज्ञया च सहिताः सुभूषिताः सन्तोऽभीष्टं सुखं लभध्वम् ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त जिससे आप (यत्) जो (गोभिः) इन्द्रियों वा वाणियों के साथ (सम्, स्वस्ति) उत्तम सुख (अस्ति) है वह (नः) हम लोगों को (मनसा) विज्ञान के साथ (सम्, नेषि) अच्छे प्रकार प्राप्त करते हैं और हे (हरिवः) श्रेष्ठ मनुष्यों से युक्त ! जो (सूरिभिः) विद्वानों के साथ सुख है, वह हम लोगों को (सम्) एक साथ प्राप्त करते हैं और जो (ब्रह्मणा) वेद, धन वा अन्न के साथ (देवहितम्) विद्वानों का हितकारक सुख है, वह हम लोगों को (सम्) एक साथ प्राप्त करते हैं और जो (यज्ञियानाम्) यज्ञ करनेवाले (देवानाम्) विद्वानों की (सुमत्या) श्रेष्ठ बुद्धि के साथ विद्वानों का हितकारक सुख है, वह हम लोगों के लिये (सम्) एक साथ प्राप्त करते हैं, इससे सत्कार करने योग्य हो ॥४॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग सत्यवाणी, विद्वानों का सङ्ग, वेदविद्या और श्रेष्ठ बुद्धि के सहित उत्तम प्रकार शोभित हुए अभीष्ट सुख को प्राप्त हूजिये ॥४॥

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    विषय

    राजा विद्वान् के कर्तव्य, ज्ञान वितरण ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( हरिवः ) उत्तम मनुष्यों के स्वामिन्! हे अश्वादि सैन्य के स्वामिन् ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (नः) हमें ( मनसा ) उत्तम मन और (गोभिः) उत्तम वाणियों, भूमियों और इन्द्रियों से (यत् देवहितं अस्ति ) जो विद्वानों वा हम कामनाशील पुरुषों को हितकारक है या विद्वानों में स्थित ज्ञानादि है उसे ( सं नेषि ) प्राप्त करा । (नः) हमें ( सूरिभिः) विद्वानों से हितकारी ज्ञान ( सं नेषि ) प्राप्त करा । हमें ( स्वस्ति ) सुखदायक प्रकार से ( देव-हितंयद् यद् अस्ति ) जो भी दिव्य पदार्थों में ग्राह्य तत्व हो वह ( सं नेषि ) अच्छी प्रकार प्राप्त करा । हमें तू ( ब्रह्मणा ) वेद ज्ञान और धन से भी जो ( देवहितं अस्ति ) दानशील पुरुषों के योग्य हो वह प्राप्त करा । और ( यज्ञियानां ) पूजा सत्कार के योग्य ( देवानां सुमत्या ) विद्वान् पुरुषों की उत्तम बुद्धि द्वारा भी हमें (देव-हितं) विद्वानों में विद्यमान ज्ञान ( सं नेषि ) प्राप्त करा ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१, ४, ६, ११, १२, १५, १६, १८ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, ७, ८,९, १३,१४ त्रिष्टुप् । १७ याजुषी पंक्ति: । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रशस्त मन व इन्द्रियाँ तथा ज्ञानियों का संग

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (नः) = हमें (मनसा) = उत्तम मननशील अन्तःकरण से (संनेषि) = संगत करते हैं, (गोभिः) = ज्ञानेन्द्रियों से युक्त करते हैं। हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! आप (सूरिभिः) = ज्ञानी पुरुषों से (सम्) = हमें संगत करते हैं और इस प्रकार उनके द्वारा ज्ञान को प्राप्त कराके (स्वस्ति) = कल्याणों से (सम्) = हमें संगत करते हैं। मन व इन्द्रियाँ उत्तम हों तथा ज्ञानियों का सम्पर्क प्राप्त हो जाए, तो ज्ञान प्राप्त होकर हमारा कल्याण क्यों न होगा ? [२] हे प्रभो ! हमें उस (ब्रह्मणा) = वेदज्ञान से (सम्) = संगत करिये (यत्) = जो (देवहितं अस्ति) = देवों के लिये हितकर है अथवा सृष्टि के प्रारम्भ में 'अग्नि, वायु, रवि व अंगिरा' नाम ऋषियों के हृदय में आपके द्वारा स्थापित किया गया है। हमें (यज्ञियानाम्) = यज्ञशील (देवानाम्) = विद्वानों की (सुमत्या) = कल्याणीमति से (सम्) = संगत करिये। इस शुभ बुद्धि को प्राप्त करके ही हम वेदज्ञान को प्राप्त करेंगे और तदनुकूल जीवन बिताते हुए कल्याण को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा मन उत्तम हो, इन्द्रियाँ प्रशस्त हों। विद्वानों का सम्पर्क प्राप्त हो । यज्ञशील विद्वानों की सुमति को प्राप्त करके हम ज्ञानयुक्त बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! तुम्ही सत्यवचन, विद्वानांचा संग, वेद-विद्या व श्रेष्ठ बुद्धीसह शोभित व्हा व मनोवांछित सुख प्राप्त करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of power, honour and excellence, you lead us on with a holy mind, with efficient senses, intelligence and songs of homage, with bright and brave people. Lord of humanity, commanding the motive forces of the dynamics of existence, let there be all good and well being for us. Lead us on with knowledge and wealth of divinity, with whatever is good and beneficial for noble people, and with the wisdom of the brilliant people devoted to yajnic creation and divine service.

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