ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रतिप्रभ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
विश्वो॑ दे॒वस्य॑ ने॒तुर्मर्तो॑ वुरीत स॒ख्यम्। विश्वो॑ रा॒य इ॑षुध्यति द्यु॒म्नं वृ॑णीत पु॒ष्यसे॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठविश्वः॑ । दे॒वस्य॑ । ने॒तुः । मर्तः॑ । वु॒री॒त॒ । स॒ख्यम् । विश्वः॑ । रा॒ये । इ॒षु॒ध्य॒ति॒ । द्यु॒म्नम् । वृ॒णी॒त॒ । पु॒ष्यसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वो देवस्य नेतुर्मर्तो वुरीत सख्यम्। विश्वो राय इषुध्यति द्युम्नं वृणीत पुष्यसे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठविश्वः। देवस्य। नेतुः। मर्तः। वुरीत। सख्यम्। विश्वः। राये। इषुध्यति। द्युम्नम्। वृणीत। पुष्यसे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु की मित्रता का वरण
पदार्थ -
[१] (विश्व: मर्तः) = इस संसार में प्रविष्ट हुआ हुआ प्रत्येक मनुष्य (नेतुः देवस्य) = संसार के प्रणेता, सब व्यवहारों के साधकर [दिव् व्यवहारे] प्रभु की (सख्यम्) = मित्रता को वुरीत वरे । इसी में कल्याण है। जब प्रभु को भूलकर प्रकृति की ओर झुकते हैं, तो उस प्रकृति के पाँव तले रौंदे जाते हैं। [२] पर यह बात है बड़ी विचित्र कि (विश्वः) = सब कोई राये धन के लिये (इषुध्यति) = याचना करता है। धन आवश्यक है, पर इस धन में ही तो आनन्द नहीं रखा। यह धनासक्ति ही हमारे सब कष्टों का कारण बनती है। इसलिए (द्युम्नम्) = ज्ञानधन का ही (वृणीत) = वरण करो, (पुष्यसे) = यदि अपना ठीक पोषण करना है तो अपने उत्तम पोषण के लिये हमें ज्ञान का ही वरण करना चाहिए, जीवन यात्रा के लिये आवश्यक धन तो प्राप्त हो ही जायेगा।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की मित्रता का वरण करें। अपने ठीक पोषण के लिये ज्ञान-धन का वरण करें। आवश्यक बाह्य धन तो प्राप्त हो ही जाता है।
इस भाष्य को एडिट करें