ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्र श्या॑वाश्व धृष्णु॒यार्चा॑ म॒रुद्भि॒र्ऋक्व॑भिः। ये अ॑द्रो॒घम॑नुष्व॒धं श्रवो॒ मद॑न्ति य॒ज्ञियाः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । श्या॒व॒ऽअ॒श्व॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । अर्च॑ । म॒रुत्ऽभिः । ऋक्व॑ऽभिः । ये । अ॒द्रो॒घम् । अ॒नु॒ऽस्व॒धम् । श्रवः॑ । मद॑न्ति । य॒ज्ञियाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र श्यावाश्व धृष्णुयार्चा मरुद्भिर्ऋक्वभिः। ये अद्रोघमनुष्वधं श्रवो मदन्ति यज्ञियाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। श्यावऽअश्व। धृष्णुऽया। अर्च। मरुत्ऽभिः। ऋक्वऽभिः। ये। अद्रोघम्। अनुऽस्वधम्। श्रवः। मदन्ति। यज्ञियाः ॥ ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - प्राणसाधना व शत्रुधर्षण
पदार्थ -
[१] प्रभु कहते हैं कि हे (श्यावाश्व) = गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले जीव ! तू (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के दृष्टिकोण से (ऋक्वभिः) = इन स्तुति के योग्य (मरुद्भिः) = प्राणों से (प्र अर्चा) = खूब ही प्रभु की अर्चना करनेवाला बन। प्राणसाधना ही सब अध्यात्म उन्नति का मूल है, सो प्राण अतिशयेन स्तुत्य हैं। प्राणायाम के होने पर चित्तवृत्ति का निरोध होकर हम प्रभु के उपासक बन पाते हैं । यह उपासना हमारे सब अध्यात्म शत्रुओं का संहार करती हैं। [२] उन प्राणों से तू अर्चना करनेवाला बन, (ये) = जो प्राण (अद्रोघम्) = द्रोहशून्य (अनुष्वधम्) = आत्मधारण के अनुकूल (श्रवः) = ज्ञान को प्राप्त करके (मदन्ति) = आनन्द का लाभ करते हैं। अतएव जो प्राण (यज्ञियाः) = यज्ञिय हैं, आदरणीय हैं । प्राणसाधना से अशुद्धियों का क्षय होकर वह ज्ञान प्राप्त होता है, जो ज्ञान हमें द्रोहशून्य बनाता है तथा आत्मतत्त्व का धारण कराता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना के होने पर हमारे दोष दूर होते हैं, हिंसावृत्ति नष्ट होती है, हम आत्मतत्त्व की ओर झुकते हैं। इस प्रकार जीवन वास्तविक आनन्द को प्राप्त करानेवाला होता है।
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