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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    ते हि स्थि॒रस्य॒ शव॑सः॒ सखा॑यः॒ सन्ति॑ धृष्णु॒या। ते याम॒न्ना धृ॑ष॒द्विन॒स्त्मना॑ पान्ति॒ शश्व॑तः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । हि । स्थि॒रस्य॑ । शव॑सः । सखा॑यः । सन्ति॑ । धृ॒ष्णु॒ऽया । ते । याम॑न् । आ । धृ॒ष॒त्ऽविनः॑ । त्मना॑ । पा॒न्ति॒ । शश्व॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते हि स्थिरस्य शवसः सखायः सन्ति धृष्णुया। ते यामन्ना धृषद्विनस्त्मना पान्ति शश्वतः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। हि। स्थिरस्य। शवसः। सखायः। सन्ति। धृष्णुऽया। ते। यामन्। आ। धृषत्ऽविनः। त्मना। पान्ति। शश्वतः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (ते) = वे प्राण (हि) = निश्चय से (स्थिरस्य) = स्थिर (शवस:) = बल के (सखायः) = मित्र सन्ति हैं । प्राणसाधना से सोमशक्ति का रक्षण होकर हमें स्थिर बल की प्राप्ति होती है । (धृष्णुया) = ये प्राण शत्रुधर्षण के दृष्टिकोण से हमारे लिये इस स्थिर बल को प्राप्त कराते हैं । [२] (ते) = वे प्राण (यामन्) = इस जीवनमार्ग में (आ) = समन्तात् (धृषद्विनः) = शत्रुओं को कुचलनेवाले होते हैं। ये (त्मना) = स्वयं ही (शश्वतः) = [शश प्लुतगतौ] क्रियाशील पुरुषों का पान्ति रक्षण करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से स्थिर बल की प्राप्ति होती है, जीवन-यात्रा में हमारे शत्रुओं का धर्षण करते हुए ये प्राण हमारा रक्षण करते हैं।

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