ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 3
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
ते स्य॒न्द्रासो॒ नोक्षणोऽति॑ ष्कन्दन्ति॒ शर्व॑रीः। म॒रुता॒मधा॒ महो॑ दि॒वि क्ष॒मा च॑ मन्महे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठते । स्प॒न्द्रासः॑ । न । उ॒क्षणः॑ । अति॑ । स्क॒न्द॒न्ति॒ । शर्व॑रीः । म॒रुता॑म् । अध॑ । महः॑ । दि॒वि । क्ष॒मा । च॒ । म॒न्म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते स्यन्द्रासो नोक्षणोऽति ष्कन्दन्ति शर्वरीः। मरुतामधा महो दिवि क्षमा च मन्महे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठते। स्यन्द्रासः। न। उक्षणः। अति। स्कन्दन्ति। शर्वरीः। मरुताम्। अध। महः। दिवि। क्षमा। च। मन्महे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
विषय - 'स्पन्द्रासः न उक्षण: ' मरुतः
पदार्थ -
[१] (ते) = वे प्राण (न) = जैसे (स्पन्द्रासः) - शरीर में गतिवाले होते हैं, [स्पदि किञ्चिच्चलने] जितनी-जितनी इनकी गति सूक्ष्म होती है उतना उतना ही ये (उक्षण:) = हमारे जीवनों में शक्ति का सेचन करनेवाले होते हैं। ये प्राण (शर्वरी:) = अन्धकार रूप रात्रियों को (अतिस्कन्दन्ति) = लाँघ जाते हैं, अर्थात् जीवन में से अन्धकार को दूर भगा देते हैं। [२] (अधा) = अब हम (मरुताम्) = इन प्राणों के (महः) = तेज को (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (च) = और (क्षमा) = इस शरीररूप पृथिवी में (मन्महे) = स्तुत करते हैं। इन प्राणों के कारण ही मस्तिष्क ज्ञान सूर्य से दीप्त हो उठता है और इन्हीं के कारण शरीर तेजस्विता से दृढ़ बन जाता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा प्राणों की गति सूक्ष्म होने पर सब अन्धकार दूर हो जाएगा। तब मस्तिष्क दीप्त बनेगा, शरीर शक्ति सिक्त होकर दृढ़ होगा।
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