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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    म॒रुत्सु॑ वो दधीमहि॒ स्तोमं॑ य॒ज्ञं च॑ धृष्णु॒या। विश्वे॒ ये मानु॑षा यु॒गा पान्ति॒ मर्त्यं॑ रि॒षः ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒रुत्ऽसु॑ । वः॒ । द॒धी॒म॒हि॒ । स्तोम॑म् । य॒ज्ञम् । च॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । विश्वे॑ । ये । मानु॑षा । यु॒गा । पान्ति॑ । मर्त्य॑म् । रि॒षः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुत्सु वो दधीमहि स्तोमं यज्ञं च धृष्णुया। विश्वे ये मानुषा युगा पान्ति मर्त्यं रिषः ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत्ऽसु। वः। दधीमहि। स्तोमम्। यज्ञम्। च। धृष्णुऽया। विश्वे। ये। मानुषा। युगा। पान्ति। मर्त्यम्। रिषः ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुम्हें हम (मरुत्सु) = इन प्राणों में (दधीमहि) = धारण करते हैं । ये प्राण ही तुम्हारी जीवन-यात्रा के मुख्य आधार हैं। इन प्राणों के शक्तिशाली होने पर (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के द्वारा (स्तोमम्) = प्रभु स्तवन को (यज्ञं च) = और (श्रेष्ठतम) = कर्मों को हम तुम्हारे अन्दर स्थापित करते हैं। [२] उन प्राणों में हम तुम्हें स्थापित करते हैं ये जो (विश्वे मानुषा युगा) = सब मानुष युगों में, अर्थात् जीवन के 'प्रातः, मध्याह्न व तृतीय' सवन में, (मर्त्यम्) = मनुष्य को (रिषुः पान्ति) = हिंसा से बचाते हैं। ये प्राण न तो रोगों से और नां ही वासनाओं से मनुष्य को हिंसित होने देते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ– प्राणसाधना के होने पर हम प्रभु स्तवन में व श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। ये प्राण मनुष्य को सदा रोगों व वासनाओं से हिंसित होने से बचाते हैं।

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