ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
म॒रुत्सु॑ वो दधीमहि॒ स्तोमं॑ य॒ज्ञं च॑ धृष्णु॒या। विश्वे॒ ये मानु॑षा यु॒गा पान्ति॒ मर्त्यं॑ रि॒षः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठम॒रुत्ऽसु॑ । वः॒ । द॒धी॒म॒हि॒ । स्तोम॑म् । य॒ज्ञम् । च॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । विश्वे॑ । ये । मानु॑षा । यु॒गा । पान्ति॑ । मर्त्य॑म् । रि॒षः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मरुत्सु वो दधीमहि स्तोमं यज्ञं च धृष्णुया। विश्वे ये मानुषा युगा पान्ति मर्त्यं रिषः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठमरुत्ऽसु। वः। दधीमहि। स्तोमम्। यज्ञम्। च। धृष्णुऽया। विश्वे। ये। मानुषा। युगा। पान्ति। मर्त्यम्। रिषः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! ये विश्वे भवन्तो धृष्णुया मानुषा युगा स्तोमं यज्ञं मर्त्यं च रिषः पान्ति तान् वो वयं मरुत्सु दधीमहि ॥४॥
पदार्थः
(मरुत्सु) मनुष्येषु (वः) युष्मान् (दधीमहि) (स्तोमम्) श्लाघनीयम् (यज्ञम्) पुरुषार्थम् (च) (धृष्णुया) दृढानि (विश्वे) सर्वे (ये) (मानुषा) मनुष्याणामिमानि (युगा) युगानि वर्षाणि (पान्ति) रक्षन्ति (मर्त्यम्) मनुष्यम् (रिषः) हिंसकात् ॥४॥
भावार्थः
ये दैविकमानुषाणि युगानि वर्षाणि च जानन्ति ते गणितविद्याविदो जायन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (ये) जो (विश्वे) सब आप लोग (धृष्णुया) दृढ़ (मानुषा) मनुष्यों के सम्बन्धी (युगा) वर्षों को (स्तोमम्) प्रशंसा करने योग्य (यज्ञम्) पुरुषार्थ को (मर्त्यम्, च) और मनुष्य को (रिषः) हिंसक के (पान्ति) रखते अर्थात् बचाते हैं, उन (वः) आप लोगों को हम लोग (मरुत्सु) मनुष्यों में (दधीमहि) धारण करें ॥४॥
भावार्थ
जो देव और मनुष्यसम्बन्धी युगों और वर्षों को जानते हैं, वे गणितविद्या के जाननेवाले होते हैं ॥४॥
विषय
वायुवत् शत्रुविजय का उपदेश ।
भावार्थ
भा०-हे विद्वान् पुरुषो ! हे प्रजागण ! ( ये ) जो ( विश्वे ) समस्त जन (रिष: ) हिंसा से ( मानुषा युगा पान्ति ) मनुष्यों के जोड़ों अर्थात् समस्त स्त्री पुरुषों की रक्षा करते हैं ( वः ) उन आप लोगों के बीच ( मरुत्सु ) वायुवत् तीव्रगामी, शत्रुओं को मारने वाले एवं विद्वान् पुरुषों के आश्रय पर ही ( वः ) आप लोगों के ( धृष्णुया ) शत्रु को पराजय करने वाला, और दृढ ( स्तोमं ) बल, वीर्य, ज्ञान और (बलं च) परस्पर संगति और मैत्रीभाव को ( दधीमहि ) धारण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५, १५ विराडनुष्टुप् । २, ७, १० निचृदनुष्टुप् । ६ पंक्तिः । ३, ९, ११ विराडुष्णिक् । ८, १२, १३ अनुष्टुप् । १४ बृहती । १६ निचृद् बृहती । १७ बृहती ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
स्तोमं यज्ञं च धृष्णुया
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि (वः) = तुम्हें हम (मरुत्सु) = इन प्राणों में (दधीमहि) = धारण करते हैं । ये प्राण ही तुम्हारी जीवन-यात्रा के मुख्य आधार हैं। इन प्राणों के शक्तिशाली होने पर (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के द्वारा (स्तोमम्) = प्रभु स्तवन को (यज्ञं च) = और (श्रेष्ठतम) = कर्मों को हम तुम्हारे अन्दर स्थापित करते हैं। [२] उन प्राणों में हम तुम्हें स्थापित करते हैं ये जो (विश्वे मानुषा युगा) = सब मानुष युगों में, अर्थात् जीवन के 'प्रातः, मध्याह्न व तृतीय' सवन में, (मर्त्यम्) = मनुष्य को (रिषुः पान्ति) = हिंसा से बचाते हैं। ये प्राण न तो रोगों से और नां ही वासनाओं से मनुष्य को हिंसित होने देते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना के होने पर हम प्रभु स्तवन में व श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। ये प्राण मनुष्य को सदा रोगों व वासनाओं से हिंसित होने से बचाते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जे दैवी व माणूस यासंबंधीचे युग व वर्ष जाणतात ते गणित विद्या जाणणारे असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For you all, let us admire and honour all those of you and hold them among the Maruts as children of stormy winds and rays of light who protect our songs of praise and prayer and promote the flames and fragrance of yajna throughout human history and save humanity from violence with strength and determina tion.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The purpose of honouring deserving persons is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! we place you among the thoughtful good persons. They guard mankind, admirable Yajnas (philanthropic labour of all kinds) and men from malevolent wicked persons for set periods (Yugas and years).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who know the divine and human periods well, become well-versed in mathematics.
Translator's Notes
Yugas are four in number named as सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग the number of their years according to the books on ancient astronomy is as follows :— Krita Yuga-4000 Daiva Years-human years 1440000 Treta Yuga-3000 Daiva Years -do- 1080000 Dvapara Yuga-2000 Daiva Years -do- 72000 Kali Yuga-1000 Daiva years -- do-- 36000 For details see Rishi Dayananda Sarasvati's Rigvedādi Bhāshya Bhoomika or Introduction to the study of the Vedas.
Foot Notes
(रिष्:) हिंसकात् । रिष्-हिंसायाम् । = From a violent person. (युगा) युगानि वर्षाणि। = Yugas and years.
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